Friday 28 September 2012

Shayar Kaifi Azmi, शायर कैफ़ी आज़मी

Shayar Kaifi Azmi
January 14, 1919 – May 10, 2002
1. 
 वतन के लिये
यही तोहफा है यही नज़राना
मैं जो आवारा नज़र लाया हूँ
रंग में तेरे मिलाने के लिए
कतरा-ए-खून-ए-जिगर लाया हूँ
ऐ गुलाबों के वतन

पहले कब आया हूँ कुछ याद नहीं
लेकिन आया था कसम खता हूँ
फूल तो फूल हैं काँटों पर तेरे
अपने होंठों के निशान पाता हूँ
मेरे ख्वाबों के वतन

चूम लेने दे मुझे हाथ अपने
जिन से तोड़ी है कई जंजीरें
तुने बदला है मसहियत का मिजाज़
तुने लिखी हैं नयी तकदीरें
इन्क़लाबों के वतन

फूल के बाद नए फूल खिले
कभी खाली न हो दामन तेरा
रौशनी रौशनी तेरी रहे
चांदनी चांदनी आँगन तेरा
मोहब्बतों के वतन 
English
Yahii tohafaa hai yahii nazaraanaa
mai.n jo aavaaraa nazar laayaa huu.N
rang me.n tere milaane ke liye
qataraa-e-Khuun-e-jigar laayaa huu.N
ai gulaabo.n ke vatan

Pahale kab aayaa huu.N kuchh yaad nahii.n
lekin aayaa thaa qasam khaataa huu.N
phuul to phuul hai.n kaa.NTo.n pe tere
apane ho.NTo.n ke nishaa.N paataa huu.N
mere Khvaabo.n ke vatan

Chuum lene de mujhe haath apane
jin se to.Dii hai.n ka_ii zanjiire.n
tuune badalaa hai mashiyat kaa mizaaj
tuune likhii hai.n na_ii taqdiire.n
inqalaabo.n ke vatan

Phuul ke baad naye phuul khile.n
kabhii Khaalii na ho daaman teraa
roshanii roshanii terii raahe.n
chaa.Ndanii chaa.Ndanii aa.ngan teraa
maahataabo.n ke vatan
2.
कभी जमूद कभी सिर्फ़ इंतिशार सा है 
कभी जमूद कभी सिर्फ़ इंतिशार सा है
जहाँ को अपनी तबाही का इंतिज़ार सा है

मनु की मछली, न कश्ती-ए-नूह और ये फ़ज़ा
कि क़तरे-क़तरे में तूफ़ान बेक़रार सा है

मैं किसको अपने गरेबाँ का चाक दिखलाऊँ
कि आज दामन-ए-यज़दाँ भी तार-तार-सा है

सजा-सँवार के जिसको हज़ार नाज़ किए
उसी पे ख़ालिक़-ए-कोनैन शर्मसार सा है

तमाम जिस्म है बेदार, फ़िक्र ख़ाबीदा
दिमाग़ पिछले ज़माने की यादगार सा है

सब अपने पाँव पे रख-रख के पाँव चलते हैं
ख़ुद अपने दोश पे हर आदमी सवार सा है

जिसे पुकारिए मिलता है इस खंडहर से जवाब
जिसे भी देखिए माज़ी के इश्तेहार सा है

हुई तो कैसे बियाबाँ में आके शाम हुई
कि जो मज़ार यहाँ है मेरे मज़ार सा है

कोई तो सूद चुकाए कोई तो ज़िम्मा ले
उस इंक़लाब का जो आज तक उधार सा है
 

3.
  आवारा सज़दे
इक यही सोज़-ए-निहाँ कुल मेरा सर्माया है
दोस्तो मैं किसे ये सोज़-ए-निहाँ नज़्र करूँ
कोई क़ातिल सर-ए-मक़्तल नज़र आता ही नहीं
किस को दिल नज़्र करूँ और किसे जाँ नज़्र करूँ

तुम भी महबूब मेरे तुम भी हो दिलदार मेरे
आश्ना मुझसे मगर तुम भी नहीं तुम भी नहीं
ख़त्म है तुम पे मसीहानफ़सी चारागरी
मेहरम-ए-दर्द-ए-जिगर तुम भी नहीं तुम भी नहीं

अपनी लाश आप उठाना कोई आसान नहीं
दस्त-ओ-बाज़ू मेरे नाकारा हुए जाते हैं
जिनसे हर दौर में चमकी है तुम्हारी दहलीज़
आज सज्दे वोही आवारा हुए जाते हैँ

दूर मन्ज़िल थी मगर ऐसी भी कुछ दूर न थी
लेके फिरती रही रस्ते ही में वहशत मुझ को
एक ज़ख़्म ऐसा न खाया के बहार आ जाती
दार तक लेके गया शौक़-ए-शहादत मुझ को

राह में टूट गये पाँव तो मालूम हुआ
जुज़ मेरे और मेरा रहनुमा कोई नहीं
एक के बाद ख़ुदा एक चला आता था
कह दिया अक़्ल ने तंग आके ख़ुदा कोई नहीं

4.
 अन्देशे
रूह बेचैन है इक दिल की अज़ीयत क्या है
दिल ही शोला है तो ये सोज़-ए-मोहब्बत क्या है
वो मुझे भूल गई इसकी शिकायत क्या है
रंज तो ये है के रो-रोके भुलाया होगा

वो कहाँ और कहाँ काहिफ़-ए-ग़म सोज़िश-ए-जाँ
उस की रंगीन नज़र और नुक़ूश-ए-हिर्माँ
उस का एह्सास-ए-लतीफ़ और शिकस्त-ए-अर्माँ
तानाज़न एक ज़माना नज़र आया होगा

झुक गई होगी जवाँ-साल उमन्गों की जबीं
मिट गई होगी ललक डूब गया होगा यक़ीं
छा गया होगा धुआँ घूम गई होगी ज़मीं
अपने पहले ही घरौंदे को जो ढाया होगा

दिल ने ऐसे भी कुछ अफ़साने सुनाये होँगे
अश्क आँखों ने पिये और न बहाये होँगे
बन्द कमरे में जो ख़त मेरे जलाये होँगे
एक-इक हर्फ़ जबीं पर उभर आया होगा

उस ने घबराके नज़र लाख बचाई होगी
मिटके इक नक़्श ने सौ शक़्ल दिखाई होगी
मेज़ से जब मेरी तस्वीर हटाई होगी
हर तरफ़ मुझ को तड़प्ता हुआ पाया होगा

बेमहल छेड़ पे जज़्बात उबल आये होँगे
ग़म पशेमान तबस्सुम में ढल आये होँगे
नाम पर मेरे जब आँसू निकल आये होँगे
सर न काँधे से सहेली के उठाया होगा

ज़ुल्फ़ ज़िद कर के किसी ने जो बनाई होगी
रूठ्व जल्वोँ पे ख़िज़ाँ और भी छाई होगी
बर्क़ अश्वोँ ने कई दिन न गिराई होगी
रंग चेहरे पे कई रोज़ न आया होगा

होके मजबूर मुझे उस ने भुलाया होगा
ज़हर चुप कर के दवा जान के ख़ाया होगा
5.
पत्थर के खुदा वहाँ भी पाए 
पत्थर के खुदा वहाँ भी पाए
हम चाँद से आज लौट आए

दीवारें तो हर तरफ़ खड़ी हैं
क्या हो गए मेहरबान साए

जंगल की हवायें आ रही हैं
कागज का यह शहर उड़ न जाए

लैला ने नया जनम लिया है
है कैस कोई तो दिल लगाए

है आज जमीं का गुस्ल-ए-सेहत
जिस दिल में हो जितना खून लाए

सहरा सहरा लहू के खेमे
फिर प्यासे लब-ए-फुरात आए

मायने: गुस्ल-ए-सेहत = स्वस्थ स्नान, सहरा = मरूस्थल
 

English 
patthar ke Khudaa vahaaN bhii paaye
ham chaaNd se aaj lauT aaye

diivaareN to har taraf khaRii haiN
kyaa ho gaye meh’rbaaN saaye

jangal kii havaayeN aa rahii haiN
kaaGhaz kaa ye shah’r uR na jaaye

Lailaa ne nayaa janam liyaa hai
hai Qais ko’ii jo dil lagaaye?

hai aaj zamiiN kaa ghus’l-e-sehat
jis dil meN ho jitnaa Khuun laaye

sehraa sehraa lahuu ke Kheme
phir pyaase lab-e-Furaat aaye*

meh’rbaan : loving, affectionate
Qais : Another name for Majnuu
ghus’l-e-sehat : Bathing after recovery from sickness
sehraa : desert
Kheme : tent
lab-e-Furaat : Bank of river Euphrates

6.
 मैं ढूंढता हूँ जिसे वह जहाँ नहीं मिलता
मैं ढूंढता हूँ जिसे वह जहाँ नहीं मिलता
नई ज़मीं नया आसमां नहीं मिलता

नई ज़मीं नया आसमां भी मिल जाए
नए बशर का कहीं कुछ निशाँ नहीं मिलता

वोह तेग मिल गई जिस से हुआ है कत्ल मिरा
किसी के हाथ का उस पर निशाँ नहीं मिलता

वोह मेरा गांव है, वोह मेरे गांव के चूल्हे
के जिनमें शोले तो शोले धुआँ नहीं मिलता

जो इक खुदा नहीं मिलता तो इतना मातम क्यों
मुझे खुद अपने कदम का निशाँ नहीं मिलता

खड़ा हूँ कब से मैं चेहरों के एक जंगल में
तुम्हारे चेहरे का कुछ भी यहाँ नहीं मिलता


मायने: बशर=व्यक्ति, तेग=तलवार
7.
हाथ आकर लगा गया कोई
हाथ आकर लगा गया कोई
मेरा छप्पर उठा गया कोई

लग गया इक मशीन में मैं
शहर में ले के आ गया कोई

मैं खड़ा था के पीठ पर मेरी
इश्तिहार इक लगा गया कोई

यह सदी धूप को तरसती है
जैसे सूरज को खा गया कोई

ऐसी मंहगाई है के चेहरा भी
बेच के अपना खा गया कोई

अब बोह अरमान हैं न वो सपने
सब कबूतर उड़ा गया कोई

वोह गए जब से ऐसा लगता है
छोटा मोटा खुदा गया कोई

मेरा बचपन भी साथ ले आया
गांव से जब भी आ गया कोई

8.
 तुम परेशान न हो बाब-ए-करम वा न करो
तुम परेशान न हो बाब-ए-करम वा न करो
और कुछ देर पुकारूँगा चला जाऊँगा

इसी कूचे में जहाँ चाँद उगा करते हैं
शब-ए-तारीक गुज़ारूँगा चला जाऊँगा

रास्ता भूल गया या यहाँ मंज़िल है मेरी
कोई लाया है या ख़ुद आया हूँ मालूम नहीं

कहते हैं हुस्न कि नज़रें भी हसीं होती हैं
मैं भी कुछ लाया हूँ क्या लाया हूँ मालूम नहीं

यूँ तो जो कुछ था मेरे पास मैं सब कुछ बेच आया
कहीं इनाम मिला और कहीं क़ीमत भी नहीं

कुछ तुम्हारे लिये आँखों में छुपा रक्खा है
देख लो और न देखो तो शिकायत भी नहीं

एक तो इतनी हसीं दूसरे ये आराइश
जो नज़र पड़ती है चेहरे पे ठहर जाती है

मुस्कुरा देती हो रसमन भी अगर महफ़िल में
इक धनक टूट के सीनों में बिखर जाती है

गर्म बोसों से तराशा हुआ नाज़ुक पैकर
जिस की इक आँच से हर रूह पिघल जाती है

मैं ने सोचा है तो सब सोचते होंगे शायद
प्यास इस तरह भी क्या साँचे में ढल जाती है

क्या कमी है जो करोगी मेरा नज़राना क़ुबूल
चाहने वाले बहुत चाह के अफ़साने बहुत

एक ही रात सही गर्मी-ए-हंगामा-ए-इश्क़
एक ही रात में जल मरते हैं परवाने बहुत

फिर भी इक रात में सौ तरह के मोड़ आते हैं
काश तुम को कभी तनहाई का एहसास न हो

काश ऐसा न हो ग़ैर-ए-राह-ए-दुनिया तुम को
और इस तरह कि जिस तरह कोई पास न हो

आज की रात जो मेरी तरह तन्हा है
मैं किस तरह गुज़ारूँगा चला जाऊँगा

तुम परेशाँ न हो बाब-ए-करम वा न करो
और कुछ देर पुकारूँगा चला जाऊँगा
 

9.
 बस इक झिझक है
बस इक झिझक है यही हाल-ए-दिल सुनाने में
कि तेरा ज़िक्र भी आयेगा इस फ़साने में

बरस पड़ी थी जो रुख़ से नक़ाब उठाने में
वो चाँदनी है अभी तक मेरे ग़रीब-ख़ाने में

इसी में इश्क़ की क़िस्मत बदल भी सकती थी
जो वक़्त बीत गया मुझ को आज़माने में

ये कह के टूट पड़ा शाख़-ए-गुल से आख़िरी फूल
अब और देर है कितनी बहार आने में 

10.
अब तुम आग़ोश-ए-तसव्वुर में भी आया न करो
अब तुम आग़ोश-ए-तसव्वुर में भी आया न करो
मुझ से बिखरे हुये गेसू नहीं देखे जाते

सुर्ख़ आँखों की क़सम काँपती पलकों की क़सम
थर-थराते हुये आँसू नहीं देखे जाते

अब तुम आग़ोश-ए-तसव्वुर में भी आया न करो
छूट जाने दो जो दामन-ए-वफ़ा छूट गया

क्यूँ ये लग़ज़ीदा ख़रामी ये पशेमाँ नज़री
तुम ने तोड़ा नहीं रिश्ता-ए-दिल टूट गया

अब तुम आग़ोश-ए-तसव्वुर में भी आया न करो
मेरी आहों से ये रुख़्सार न कुमला जायें

ढूँडती होगी तुम्हें रस में नहाई हुई रात
जाओ कलियाँ न कहीं सेज की मुर्झा जायें

अब तुम आग़ोश-ए-तसव्वुर में भी आया न करो
मैं इस उजड़े हुये पहलू में बिठा लूँ न कहीं

लब-ए-शीरीं का नमक आरिज़-ए-नमकीं की मिठास
अपने तरसे हुये होंठों में चुरा लूँ न कहीं
 

11.
 अज़ा में बहते थे आँसू यहाँ, लहू तो नहीं
अज़ा में बहते थे आँसू यहाँ, लहू तो नहीं
ये कोई और जगह है ये लखनऊ तो नहीं

यहाँ तो चलती हैं छुरिया ज़ुबाँ से पहले
ये मीर अनीस की, आतिश की गुफ़्तगू तो नहीं

चमक रहा है जो दामन पे दोनों फ़िरक़ों के
बग़ौर देखो ये इसलाम का लहू तो नहीं

12.
इतना तो ज़िन्दगी में किसी की ख़लल पड़े
इतना तो ज़िन्दगी में किसी की ख़लल पड़े
हँसने से हो सुकून ना रोने से कल पड़े

जिस तरह हँस रहा हूँ मैं पी-पी के अश्क-ए-ग़म
यूँ दूसरा हँसे तो कलेजा निकल पड़े

एक तुम के तुम को फ़िक्र-ए-नशेब-ओ-फ़राज़ है
एक हम के चल पड़े तो बहरहाल चल पड़े

मुद्दत के बाद उस ने जो की लुत्फ़ की निगाह
जी ख़ुश तो हो गया मगर आँसू निकल पड़े

साक़ी सभी को है ग़म-ए-तश्नालबी मगर
मय है उसी के नाम पे जिस के उबल पड़े


( ये नज़्म उन्होंने ११ बरस की उम्र में लिखी थी.)
13.
 हाथ आकर लगा गया कोई
हाथ आकर लगा गया कोई
मेरा छप्पर उठा गया कोई

लग गया इक मशीन में मैं
शहर में ले के आ गया कोई

मैं खड़ा था के पीठ पर मेरी
इश्तिहार इक लगा गया कोई

यह सदी धूप को तरसती है
जैसे सूरज को खा गया कोई

ऐसी मंहगाई है के चेहरा भी
बेच के अपना खा गया कोई

अब बोह अरमान हैं न वो सपने
सब कबूतर उड़ा गया कोई

वोह गए जब से ऐसा लगता है
छोटा मोटा खुदा गया कोई

मेरा बचपन भी साथ ले आया
गांव से जब भी आ गया कोई

14.
क्या जाने किसी की प्यास बुझाने किधर गयीं
क्या जाने किसी की प्यास बुझाने किधर गयीं
उस सर पे झूम के जो घटाएँ गुज़र गयीं

दीवाना पूछता है यह लहरों से बार बार
कुछ बस्तियाँ यहाँ थीं बताओ किधर गयीँ

अब जिस तरफ से चाहे गुजर जाए कारवां
वीरानियाँ तो सब मिरे दिल में उतर गयीं

पैमाना टूटने का कोई गम नहीं मुझे
गम है तो यह के चाँदनी रातें बिखर गयीं

पाया भी उन को खो भी दिया चुप भी यह हो रहे
इक मुख्तसर सी रात में सदियाँ गुजर गयीं
 

15.
 दूसरा बनवास 
राम बनवास से जब लौटकर घर में आये
याद जंगल बहुत आया जो नगर में आये
रक्से-दीवानगी आंगन में जो देखा होगा
छह दिसम्बर को श्रीराम ने सोचा होगा
इतने दीवाने कहां से मेरे घर में आये

धर्म क्या उनका है, क्या जात है ये जानता कौन
घर ना जलता तो उन्हे रात में पहचानता कौन
घर जलाने को मेरा, लोग जो घर में आये

शाकाहारी हैं मेरे दोस्त, तुम्हारे खन्ज़र
तुमने बाबर की तरफ़ फ़ैंके थे सारे पत्थर
है मेरे सर की खता, ज़ख्म जो सर में आये

पांव सरयू में अभी राम ने धोये भी न थे
कि नज़र आये वहां खून के गहरे धब्बे
पांव धोये बिना सरयू के किनारे से उठे
राम ये कहते हुए अपने दुआरे से उठे
राजधानी की फज़ा आई नहीं रास मुझे
छह दिसम्बर को मिला दूसरा बनवास मुझे

16.
 आज सोचा तो आँसू भर आए
आज सोचा तो आँसू भर आए
मुद्दतें हो गईं मुस्कुराए

हर कदम पर उधर मुड़ के देखा
उनकी महफ़िल से हम उठ तो आए

दिल की नाज़ुक रगें टूटती हैं
याद इतना भी कोई न आए

रह गई ज़िंदगी दर्द बनके
दर्द दिल में छुपाए छुपाए

17.
ऐ सबा! लौट के किस शहर से तू आती है?
 ऐ सबा! लौट के किस शहर से तू आती है?
तेरी हर लहर से बारूद की बू आती है!

खून कहाँ बहता है इन्सान का पानी की तरह
जिस से तू रोज़ यहाँ करके वजू आती है?

धाज्जियाँ तूने नकाबों की गिनी तो होंगी
यूँ ही लौट आती है या कर के रफ़ू आती है?

अपने सीने में चुरा लाई है किसे की आहें
मल के रुखसार पे किस किस का लहू आती है! 

18. 
औरत
उठ मेरी जान! मेरे साथ ही चलना है तुझे

कल्ब-ए-माहौल में लरज़ाँ शरर-ए-ज़ंग हैं आज
हौसले वक़्त के और ज़ीस्त के यक रंग हैं आज
आबगीनों में तपां वलवला-ए-संग हैं आज
हुस्न और इश्क हम आवाज़ व हमआहंग हैं आज
जिसमें जलता हूँ उसी आग में जलना है तुझे
उठ मेरी जान! मेरे साथ ही चलना है तुझे

ज़िन्दगी जहद में है सब्र के काबू में नहीं
नब्ज़-ए-हस्ती का लहू कांपते आँसू में नहीं
उड़ने खुलने में है नक़्हत ख़म-ए-गेसू में नहीं
ज़न्नत इक और है जो मर्द के पहलू में नहीं
उसकी आज़ाद रविश पर भी मचलना है तुझे
उठ मेरी जान! मेरे साथ ही चलना है तुझे

गोशे-गोशे में सुलगती है चिता तेरे लिये
फ़र्ज़ का भेस बदलती है क़ज़ा तेरे लिये
क़हर है तेरी हर इक नर्म अदा तेरे लिये
ज़हर ही ज़हर है दुनिया की हवा तेरे लिये
रुत बदल डाल अगर फूलना फलना है तुझे
उठ मेरी जान! मेरे साथ ही चलना है तुझे

क़द्र अब तक तिरी तारीख़ ने जानी ही नहीं
तुझ में शोले भी हैं बस अश्कफ़िशानी ही नहीं
तू हक़ीक़त भी है दिलचस्प कहानी ही नहीं
तेरी हस्ती भी है इक चीज़ जवानी ही नहीं
अपनी तारीख़ का उनवान बदलना है तुझे
उठ मेरी जान! मेरे साथ ही चलना है तुझे

19.
मेरे दिल में तू ही तू है
मेरे दिल में तू ही तू है दिल की दवा क्या करूँ
दिल भी तू है जाँ भी तू है तुझपे फ़िदा क्या करूँ

ख़ुद को खोकर तुझको पा कर क्या क्या मिला क्या कहूँ
तेरा होके जीने में क्या क्या आया मज़ा क्या कहूँ
कैसे दिन हैं कैसी रातें कैसी फ़िज़ा क्या कहूँ
मेरी होके तूने मुझको क्या क्या दिया क्या कहूँ
मेरी पहलू में जब तू है फिर मैं दुआ क्या करूँ
दिल भी तू है जाँ भी तू है तुझपे फ़िदा क्या करूँ

है ये दुनिया दिल की दुनिया, मिलके रहेंगे यहाँ
लूटेंगे हम ख़ुशियाँ हर पल, दुख न सहेंगे यहाँ
अरमानों के चंचल धारे ऐसे बहेंगे यहाँ
ये तो सपनों की जन्नत है सब ही कहेंगे यहाँ
ये दुनिया मेरे दिल में बसी है दिल से जुदा क्या करूँ
दिल भी तू है जाँ भी तू है तुझपे फ़िदा क्या करूँ

मैं खड़ा था के पीठ पर मेरी
इश्तिहार इक लगा गया कोई ।
20.
पशेमानी

मैं यह सोचकर उसके दर से उठा था
कि वह रोक लेगी मना लेगी मुझको ।

हवाओं में लहराता आता था दामन
कि दामन पकड़कर बिठा लेगी मुझको ।

क़दम ऐसे अंदाज़ से उठ रहे थे
कि आवाज़ देकर बुला लेगी मुझको ।

कि उसने रोका न मुझको मनाया
न दामन ही पकड़ा न मुझको बिठाया ।

न आवाज़ ही दी न मुझको बुलाया
मैं आहिस्ता-आहिस्ता बढ़ता ही आया ।

यहाँ तक कि उससे जुदा हो गया मैं
जुदा हो गया मैं, जुदा हो गया मैं ।

शब्दार्थ: पशेमानी=पछतावा
21.
वक्त ने किया क्या हंसी सितम
वक्त ने किया क्या हंसी सितम
तुम रहे न तुम, हम रहे न हम ।

बेक़रार दिल इस तरह मिले
जिस तरह कभी हम जुदा न थे
तुम भी खो गए, हम भी खो गए
इक राह पर चल के दो कदम ।

जायेंगे कहाँ सूझता नहीं
चल पड़े मगर रास्ता नहीं
क्या तलाश है, कुछ पता नहीं
बुन रहे क्यूँ ख़्वाब दम-ब-दम ।

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