Thursday 4 October 2012

अमजद इस्लाम अमजद , Amjad Islam Amjad

 Amjad Islam Amjad
 Born: August 4, 1944
1. 
मैं अज़ल की शाख से टूटा हुआ
 मैं अज़ल की शाख से टूटा हुआ
फिर रहा हूँ आज तक भटका हुआ

देखता रहता है मुझको रात दिन
कोई अपने तख़्त पर बैठा हुआ

चाँद तारे दूर पीछे रह गए
मैं कहाँ पर आ गया उड़ता हुआ

बंद खिड़की से हवा आती रही
एक शीशा था कहीं टूटा हुआ

खिडकियों में, कागजों में, मेज़ पर
सारे कमरे में है वो फैला हुआ

अपने माजी का इक समुंदर चाहिए
इक खजाना है यहाँ डूबा हुआ

दोस्तों ने कुछ सबक ऐसे दिए
अपने साये से भी हूँ सहमा हुआ

किसी कि आहट आते आते रुक गयी
किस ने मेरा साँस है रोका हुआ
2.
 
कहाँ आके रुकने थे रास्ते
 कहाँ आके रुकने थे रास्ते , कहाँ मोड़ था उसे भूल जा
वो जो मिल गया उसे याद रख, जो नहीं मिला उसे भूल जा

वो तेरे नसीब की बारिशें किसी और छत पे बरस गई
दिल-ए-बेखबर मेरी बात सुन, उसे भूल जा उसे भूल जा

मैं तो गुम था तेरे ही ध्यान में, तेरी आस में, तेरे गुमान में
हवा कह गई मेरे कान में, मेरे साथ आ उसे भूल जा

तुझे चाँद बन के मिला था जो, तेरे साहिलों पे खिला था जो
वो था एक दरिया विसाल का, सो उतर गया उसे भूल जा 

3.
न शिकायतें न गिला करे
  न शिकायतें न गिला करे
कोई ऐसा शख्स हुआ करे

जो मेरे लिए ही सजा करे
मुझ ही से बातें किया करे

कभी रोये जाये वो बेपनाह
कभी बेतहाशा उदास हो

कभी चुपके चुपके दबे क़दम
मेरे पीछे आ कर हंसा करे

मेरी कुर्बतें, मेरी चाहतें
कोई याद करे क़दम क़दम

मैं तवील सफ़र में हूँ अगर
मेरी वापसी की दुआ करे


Na shikayaten na gila kare
koi aisa shakhs hua kare

jo mere liye hi saja kare
mujh hi se baten kiya kare

kabhi roye jaye wo bepanah
kabhi betahasha udas ho

kabhi chupke chupke dabe qadam
mere piche aa kar hansa kare

meri qurbaten meri chahaten
koi yaad kare qadam qadam

main tavil safar mein hun agar
meri vapasi ke dua kare

4.
ज़िंदगी के मेले में

ज़िंदगी के मेले में
ख्वाहिशों के रेले में
तुम से क्या कहें जाना
इस क़दर झमेले में
वक़्त की रवानी है
बख्त की गिरानी है
सख्त बेज़मीनी है
सख्त लामकानी है
हिज्र के समंदर में
तख़्त और तख्ते की
एक ही कहानी है
तुम को जो सुनानी है

बात गो ज़रा सी है
बात उम्र भर की है
उम्र भर की बातें कब
दो घड़ी में होती हैं
दर्द के समंदर में
अनगिनत जजीरें हैं
बेशुमार मोटी हैं
आँख के दरीचे में
तुम ने जो सजाया था
बात उस दिए की है
बात उस गिले की है
जो लहू की खिलवत में
चोर बन के आता है
लफ्ज़ के फ़ासीलों पर
टूट टूट जाता है

ज़िंदगी से लम्बी है
बात रत-जगे की है
रास्ते में कैसे हो
बात तखालिये की है
तखालिये की बातों में
गुफ्तगू इजाफी है
प्यार करने वालों को
इक निगाह काफी है
हो सके तो सुन जाओ
एक दिन अकेले में
तुम से क्या कहें जानां
इस क़दर झमेले में


zindagii ke mele men
Khvaahishon ke rele men
tum se kyaa kahen jaanaa
is qadar jhamele men
vaqt kii ravaanii hai
baKht kii giraanii hai
saKht bezamiinii hai
saKht laamakaanii hai
hijr ke samandar men
taKht aur taKhte kii
ek hii kahaanii hai
tum ko jo sunaanii hai

baat go zaraa sii hai
baat umr bhar kii hai
umr bhar kii baaten kab
do ghadii men hotii hain
dard ke samandar men
anginat jaziiren hain
beshumaar motii hain
aankh ke dariiche men
tum ne jo sajaayaa thaa
baat us diye kii hai
baat us gile kii hai
jo lahuu kii Khilvat men
chor ban ke aataa hai
lafz ke fasiilon par
Tuut tuut jaataa hai

zindagii se lambii hai
baat rat-jage kii hai
raaste men kaise ho
baat taKhaliye kii hai
taKhaliye kii baaton men
guftaguu izaafii hai
pyaar karane vaalon ko
ik nigaah kaafii hai
ho sake to sun jaao
ek din akele men
tum se kyaa kahen jaanaaN
is qadar jhamele men

Meanings:
[Khvaahish = desire; baKht = fate; giraanii = deficiency]
[laamakaanii = homelessness/having no roots; hijr = separation]
[taKht = throne; taKhtii = plank of wood]
[anginat = countless; jaziiraa = island]
[beshumaar = innumerable; dariichaa = window]
[fasiil = ramparts; taKhaliyaa = solitude]
[guftaguu = conversation; izaafii = additional/extra]

5.
 खुद अपने लिए बैठ के सोचेंगे किसी दिन

खुद अपने लिए बैठ के सोचेंगे किसी दिन
यूँ है के तुझे भूल के देखेंगे किसी दिन

भटके हुए फिरते हैं कई लफ्ज़ जो दिल में
दुनिया ने दिया वक़्त तो लिक्खेंगे किसी दिन

हिल जायेंगे इक बार तो अर्शों के दर-ओ-बाम
ये खाकनशीं लोग जो बोलेंगे किसी दिन

आपस की किसी बात का मिलता ही नहीं वक़्त
हर बात ये कहे हैं के बैठेंगे किसी दिन

ऐ जान तेरी याद के बे-नाम परिंदे
शाखों पे मेरे दर्द की उतरेंगे किसी दिन

जाती है किसी झील की गहराई कहाँ तक
आँखों में तेरी डूब के देखेंगे किसी दिन

खुशबू से भरी शाम में जुगनू के कलम से
इक नज़्म तेरे वास्ते लिक्खेंगे किसी दिन

सोयेंगे तेरी आंख की खल्वत में किसी रात
साये में तेरी ज़ुल्फ़ के जागेंगे किसी दिन

खुशबू की तरह, असल-ए-सबा खाक नुमा से
गलियों से तेरे शहर की गुजरेंगे किसी दिन

‘अमजद’ है यही अब के कफ़न बांध के सर से
उस शहर-ए-सितमगर में जायेंगे किसी दिन   

 6.
मोहब्बत क्या है?

 
मुहब्बत ऐसा नगमा है
ज़रा भी झोल हो लय में
तो सुर कायम नहीं होता

मुहब्बत ऐसा शोला है
हवा जैसी भी चलती हो
कभी मद्धम नहीं होता

मुहब्बत ऐसा रिश्ता है
के जिसमे बंधने वालों के
दिलों में गम नहीं होता

मुहब्बत ऐसा पौधा है
जो तब भी सब्ज़ रहता है
के जब मौसम नहीं होता

मुहब्बत ऐसा रास्ता  है
अगर पैरों में लर्जिश हो
तो ये महरम नहीं होता

मुहब्बत ऐसा दरिया है
के बारिश रूठ भी जाये
तो पानी कम नहीं होता
7.
 
गुज़रे हैं तेरे बाद भी कुछ लोग इधर से
 गुज़रे हैं तेरे बाद भी कुछ लोग इधर से
लेकिन तेरी खुशबू न गई राहगुज़र से

क्यूँ डूबती बुझती हुई आँखों में है रौशनी
रातों को शिकायत है तो इतनी है सहर से

लरज़ा था बदन उसका मेरे हाथ से छू कर
देखा था मुझे उसने अजब मस्त नज़र से

क्या ठान के निकला था, कहाँ आ के पड़ा है
पूछे तो कोई इस दिल-ए-शर्मिंदा सफ़र से

आया है बहुत देर में वो शख्स पर उस को
जज़्बात की इस भीड़ में देखूँ मैं किधर से

हम रिजक-ए-गुज़रगाह तो खुश्क थे लेकिन 
वोह लोग जो निकले थे हवा देख के घर से

ऐसा तो नहीं मेरी तरह सर्व-ए-लब-ए-जू
क़दमों पे खड़ा हो किसी उफ्ताद के डर से

दिन थे के हमें शहर-ए-बदन तक की खबर थी
और अब नहीं आगाह तेरे खैर खबर से

अमजद न क़दम रोक के वोह दूर की मंजिल
निकलेगी किसी रोज़ इसी गर्द-ए-सफ़र से
8.
 
मोहब्बत क्या है? 
मुहब्बत ऐसा नगमा है
ज़रा भी झोल हो लय में
तो सुर कायम नहीं होता

मुहब्बत ऐसा शोला है
हवा जैसी भी चलती हो
कभी मद्धम नहीं होता

मुहब्बत ऐसा रिश्ता है
के जिसमे बंधने वालों के
दिलों में गम नहीं होता

मुहब्बत ऐसा पौधा है
जो तब भी सब्ज़ रहता है
के जब मौसम नहीं होता

मुहब्बत ऐसा रास्ता  है
अगर पैरों में लर्जिश हो
तो ये महरम नहीं होता

मुहब्बत ऐसा दरिया है
के बारिश रूठ भी जाये
तो पानी कम नहीं होता

No comments:

Post a Comment