Tuesday 23 October 2012

Obaidullah Aleem, उबैदुल्लाह अलीम

Obaidullah Aleem
1939-1997
1. 
मैं किसके नाम लिखूँ, जो अलम गुज़र रहे हैं

 मैं किसके नाम लिखूँ, जो अलम गुज़र रहे हैं
मेरे शहर जल रहे हैं, मेरे लोग मर रहे हैं

कोई गुंचा हो कि गुल, कोई शाख हो शजर हो
वो हवा-ए-गुलिस्तां है कि सभी बिखर रहे हैं

कभी रहमतें थीं नाज़िल इसी खित्ता-ए-ज़मीन पर
वही खित्ता-ए-ज़मीन है कि अज़ाब उतर रहे हैं

वही ताएरों के झुरमुट जो हवा में झूलते थे
वो फ़िज़ा को देखते हैं तो अब आह भर रहे हैं

कोई और तो नहीं है पस-ए-खंजर-आजमाई
हमीं क़त्ल हो रहे हैं, हमीं क़त्ल कर रहे हैं
2.
 
कुछ दिन तो बसो मेरी आँखों में

 कुछ दिन तो बसो मेरी आँखों में
फिर ख्वाब अगर हो जाओ तो क्या

कोई रंग तो दो मेरे चेहरे को
फिर ज़ख्म अगर महकाओ तो क्या

जब हम ही न महके फिर साहब
तुम बाद-ए-सबा कहलाओ तो क्या

एक आईना था, सो टूट गया
अब खुद से अगर शरमाओ तो क्या

दुनिया भी वही और तुम भी वही
फिर तुमसे आस लगाओ तो क्या

मैं तनहा था, मैं तनहा हूँ
तुम आओ तो क्या, न आओ तो क्या

जब देखने वाला कोई नहीं
बुझ जाओ तो क्या, गहनाओ तो क्या

एक वहम है ये दुनिया इसमें
कुछ खो'ओ तो क्या और पा'ओ तो क्या

है यूं भी ज़ियाँ और यूं भी ज़ियाँ
जी जाओ तो क्या मर जाओ तो क्या
3.
 
तेरे प्यार में रुसवा होकर जाएँ कहाँ दीवाने लोग

 तेरे प्यार में रुसवा होकर जाएँ कहाँ दीवाने लोग
जाने क्या क्या पूछ रहे हैं यह जाने पहचाने लोग

हर लम्हा एहसास की सहबा रूह में ढलती जाती है
जीस्त का नशा कुछ कम हो तो हो आयें मैखाने लोग

जैसे तुम्हें हमने चाहा है कौन भला यूं चाहेगा
माना और बोहत आयेंगे तुमसे प्यार जताने लोग

यूं गलियों बाज़ारों में आवारा फिरते रहते हैं
जैसे इस दुनिया में सभी आए हों उम्र गंवाने लोग

आगे पीछे दायें बाएँ साए से लहराते हैं
दुनिया भी तो दश्त-ऐ-बला है हम ही नहीं दीवाने लोग

कैसे दुखों के मौसम आए, कैसी आग लगी यारो
अब सहराओं से लाते हैं फूलों के नजराने लोग

कल मातम बे-कीमत होगा, आज इनकी तौकीर करो
देखो खून-ऐ-जिगर से क्या क्या लिखते हैं अफ़साने लोग
4.
 
कुछ इश्क़ था कुछ मजबूरी थी, सो मैंने जीवन वार दिया

कुछ इश्क़ था कुछ मजबूरी थी, सो मैंने जीवन वार दिया
मैं कैसा ज़िंदा आदमी था, एक शख्स ने मुझको मार दिया

एक सब्ज़ शाख गुलाब की था, एक दुनिया अपने ख़्वाब की था
वो एक बहार जो आई नहीं उसके लिए सब कुछ वार दिया

ये सजा सजाया घर साथी, मेरी ज़ात नहीं मेरा हाल नहीं
ए काश तुम कभी जान सको, जो इस सुख ने आज़ार दिया
[aazaar=तकलीफ, torment, malaise]

मैं खुली हुई सच्चाई, मुझे जानने वाले जानते हैं
मैंने किन लोगों से नफरत की और किन लोगों को प्यार दिया

वो इश्क़ बोहत मुश्किल था, मगर आसान न था यूं जीना भी
उस इश्क़ ने ज़िंदा रहने का मुझे ज़र्फ दिया, पिन्दार दिया

मैं रोता हूँ और आसमान से तारे टूट कर देखता हूँ
उन लोगों पर जिन लोगों ने मेरी लोगों को आज़ार दिया

मेरे बच्चों को अल्लाह रखे, इन ताज़ा हवा के झोकों ने
मैं खुश्क पेड खिज़ां का था, मुझे कैसा बर्ग-ओ-बार दिया
5.
 
अजीज़ इतना ही रखो कि जी संभल जाये

 अजीज़ इतना ही रखो कि जी संभल जाये
अब इस क़दर भी ना चाहो कि दम निकल जाये

मोहब्बतों में अजब है दिलों का धड़का सा
कि जाने कौन कहाँ रास्ता बदल जाये

मिले हैं यूं तो बोहत, आओ अब मिलें यूं भी
कि रूह गरमी-ए-इन्फास* से पिघल जाये

मैं वोह चिराग़ सर-ए-राह्गुज़ार-ए-दुनिया
जो अपनी ज़ात की तनहाइयों में जल जाये

ज़िहे! वोह दिल जो तमन्ना-ए-ताज़ा-तर में रहे
खुशा! वोह उम्र जो ख़्वाबों में ही बहल जाये

हर एक लहज़ा यही आरजू यही हसरत
जो आग दिल में है वोह शेर में भी ढल जाये
[infaas=breaths]
[khushaa=lucky, how happy]
[zihe=excellent, like zihe-e-naseeb]
6.
 
तुम ऐसी मोहब्बत मत करना 

तुम ऐसी मोहब्बत मत करना
मेरा ख्वाबों में चेहरा देखो
और मेरे कायल हो जाओ
तुम ऐसी मोहब्बत मत करना

मेरे लफ़्ज़ों में वोह बात सुनो
जो  बात  लहू  की  चाहत  हो
फिर उस चाहत में खो जाओ
तुम ऐसी मोहब्बत मत करना
यह लफ्ज़ मेरे यह ख्वाब मेरे
हर चंद यह जिसम ओ जान ठहरे

पर ऐसे जिसम-ओ-जान तो नहीं
जो और किसी के पास न हों
फिर यह भी तो मुमकिन है, सोचो
यह लफ्ज़ मेरे, यह ख्वाब मेरे
सब झूठे हों

तुम ऐसी मोहब्बत मत करना
गर करो मोहब्बत तो ऐसी
जिस तरहां कोई सच्चाई की रद
हर झूठ को सच कर जाती  है 

 7.
अजीब थी वोह अजब तरहां चाहता था मैं


अजीब थी वोह अजब तरहां चाहता था मैं
वोह बात करती थी और खवाब देखता था मैं

विसाल का हो के उस के फ़िराक का मौसम
वोह लज्ज़तें थीं के अन्दर से टूटता था मैं

चढ़ा हुवा था वोह नशा के कम न होता था
हज़ार बार उभरता था डूबता था में

बदन का खेल थीं उस की मोहब्बतें लेकिन
जो भेद जिसम के थे जान से खोलता था मैं

फिर इस तरहां कभी सोया न इस तरहां जगा
के रूह नींद में थी और जगता था मैं

कहाँ शिकस्त हुई और कहाँ सिला पाया
किसी का इश्क किसी से निभाता था मैं

मैं एहल-ए-जार के मुकाबल में था फ़क़त शायर
मगर मैं जीत गया लफ्ज़ हारता था मैं
8.
बना गुलाब तो कांटे चुभा गया इक शख्स


बना गुलाब तो कांटे चुभा गया इक शख्स
हुआ चिराग तो घर ही जला गया इक शख्स

तमाम रंग मेरे और सारे ख्वाब मेरे
फ़साना कह के फ़साना बना गया इक शख्स

मैं किस हवा में उड़ू किस फ़ज़ा में लहराऊ
दुखों के जाल हर-सु बिछा गया इक शख्स

पलट सकूँ में न आगे बढ़ सकूँ जिस पर
मुझे ये कौन से रस्ते लगा गया इक शख्स

मुहब्बतें भी अजीब उसकी नफरतें भी कमाल
मेरी तरह का ही मुझ में समां गया इक शख्स

वो महताब था मरहम-बा-दस्त आया था
मगर कुछ और सिवा दिल दुखा गया इक शख्स

खुला ये राज़ के आइना-खाना है दुनिया
और इस में मुझ को तमाशा बना गया इक शख्स 

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