Friday 5 April 2013

धरती और औरत

धरती
सब कुछ सहन कर लेती है
चाहे हो
बादलों का कहर बरपाना,
बरसना, बेरहमी से

या हो
बादलों का तरसा जाना,
नहीं बरसना, बेरहमी से

वह सह लेती है
बहुत सी बार
अनगिनत बरसातें

सह लेती है
सूखती नदियों,
तालाबों के दर्द

सब कुछ
सह लेती है वह
और रखती है
अपने भीतर
खारे समन्दरों,
तपते रेगिस्तानों की
अनकही वेदना

सब सहते-सहते
जब सहना
बर्दाश्त से बाहर
हो जाता है तो
फट पड़ती है, वह
धरती के भीतर से बाहर
आते है, कई
धधकते ज्वालामुखी,
विनाशकारी जलजले और सुनामी
मच जाता है
सब और हाहाकार
रो लेती है
वह खुद को कष्ट दे कर
फिर शांत भी हो जाती है

क्या तुम जानते हो?
धरती की फितरत
औरत से इतनी
मिलती-जुलती
क्यों होती है?
-आराधना सिंह

2 comments:

  1. Replies
    1. जी, शुक्रिया…… मैंने पिछले छः महीनों से न कुछ लिखा न अनुवाद किया। आप सभी प्रतिक्रिया से प्रेरित हो कर अब इस काम को जारी रखूंगी।

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