Sunday, 22 July 2012

ज़िन्दगी को ज़र-ब-कफ़, ज़रफाम करना सीखते

ज़िन्दगी को ज़र-ब-कफ़, ज़रफाम करना सीखते
कौन था वो किससे हम आराम करना सीखते

वक़्त ने मोहलत न दी वरना हमें मुश्किल न था

सिरफिरी शामों को नज़रे-जाम करना सीखते

सीख लेते काश हम भी कोई कारे-सूद-मंद

शेर-गोई छोड़ देते, काम करना सीखते

खुद-ब-खुद तय हो गए शामो-सहर अच्छा था मैं

सुबह करना सीख लेते, शाम करना सीखते

क़द्र है जब शोरो-गोगा की तो हजरत आप भी

गीत क्यों गाते रहे, कोहराम करना सीखते

~निश्तर खानकाही

मायने: ज़र-ब-कफ़=मुट्ठियों में सोना, ज़रफाम=सोने जैसा रंग, नज़रे-जाम=शराब को समर्पित,  कारे-सूद-मंद=लाभदायक, शेर-गोई=शेर कहना, शोरो-गोगा=शोर शराबा 

परिचय: बिजनौर के ग्राम ज़हानाबाद में फरवरी 1930 को जन्मे अनवार हुसैन 'निश्तर खानकाही' की पहचान गज़लकार, व्यंगकार, कहानीकार, नाटककार और स्वतन्त्र लेखक के तौर पर है. मुंबई में काफी समय गुजारने के बाद वे दिल्ली में तरक्की पसंद तहरीक की पत्रिका 'शाहराह' और उर्दू 'बीसवी सदी' के सम्पादक भी रहे. 'मेरे लहू की आग', 'सारे में शाम', 'मोम की बैशाखियाँ', 'मंज़र', 'पसे-मंजर'  ग़ज़ल संग्रह है. कुछ सियासी किताबे भी प्रकाशित हुयी है.

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