Sunday, 7 October 2012

अहमद फ़राज़

अहमद फ़राज़ 
January 12, 1931-August 25, 2008
1.
दोस्त बन कर भी नहीं साथ निभानेवाला
 
दोस्त बन कर भी नहीं साथ निभानेवाला 
वही अंदाज़ है ज़ालिम का ज़मानेवाला 

अब इसे लोग समझते हैं गिरफ्तार मेरा 
सख्त नदीम है मुझे दाम में लानेवाला

क्या कहें कितने मरासिम थे हमारे इस से 
वो जो इक शख्स है मूँह फेर के जानेवाला 

तेरे होते हुए आ जाती थी सारी दुनिया 
आज तनहा हूँ तो कोई नहीं आनेवाला 

मुन्तजिर किस का हूँ टूटी हुई दहलीज़ पे में 
कौन आयेगा यहाँ कौन है आनेवाला 

में ने देखा है बहारों में चमन को जलाते 
है कोई ख़्वाब की ताबीर बतानेवाला 

क्या खबर थी जो मेरी जान में घुला है इतना 
है वही मुझ को सर-ए-दार भी लाने वाला 

तुम तक़ल्लुफ़ को भी इखलास समझते हो 'फ़राज़'
दोस्त होता नहीं हर हाथ मिलानेवाला 
2.
 इस से पहले के बेवफा हो जाएँ

इस से पहले के बेवफा हो जाएँ
क्यूँ न ऐ दोस्त हम जुदा हो जाएँ  ?

तू भी हीरे से बन गया पत्थर
हम भी कल जाने क्या से क्या हो जाएँ

हम भी मजबूरिओं का उज़र करें
फिर कहीं और मुब्तला हो जाएँ

अब के गर तू मिले तो हम तुझसे
ऐसे लिपटें तेरी क़बा हो जाएँ

बंदगी हम ने छोड़ दी है “फ़राज़”
क्या करें जब लोग खुदा हो जाएँ
3.
जब भी दिल खोल के रोये होंगे


जब भी दिल खोल के रोये होंगे
लोग आराम से सोये होंगे

बाज़ औकात बा मजबूरी-ए-दिल
हम तो क्या आप भी रोये होंगे

सुबह तक दस्त-ए-सबा ने क्या क्या
फूल काँटों में पिरोये होंगे

वो सफीने जिन्हें तूफ़ान न मिले
न-खुदाओं ने डुबोएं होंगे

क्या अजब है वो मिले भी हों “फ़राज़”
हम किसी ध्यान में खोये होंगे
 
4.
मैं लोगों से मुलाकातों के 

मैं लोगों से मुलाकातों के
लम्हे याद रखता हूँ

मैं बातें भूल भी जाऊ
तो लहजे याद रखता हूँ

सर-ए-महफ़िल निगाहें मुझ पे
जिन लोगों की पड़ती है

निगाहों के हवाले से
वो चेहरे याद रखता हूँ

ज़रा सा हट के चलता हूँ
ज़माने की रिवायत से

के जिन पे बोझ मैं डालूं
वो कांधे याद रखता हूँ  

5.
कभी मोम बन के पिघल गया कभी गिरते गिरते सँभल गया 

कभी मोम बन के पिघल गया कभी गिरते गिरते सँभल गया
वो बन के लम्हा गुरेज़ का मेरे पास से निकल गया

उसे रोकता भी तो किस तरह के वो शख़्स इतना अजीब था
कभी तड़प उठा मेरी आह से, कभी अश्क़ से न पिघल सका

सरे-राह मिला वो अगर कभी तो नज़र चुरा के गुज़र गया
वो उतर गया मेरी आँख से, मेरे दिल से क्यूँ न उतर सका

वो चला गया जहाँ छोड़ के मैं वहाँ से फिर न पलट सका
वो सँभल गया था 'फ़राज़' मगर मैं बिखर के न सिमट सका
6.
 

मैं दीवाना सही पर बात सुन ऐ हमनशीं मेरी

 मैं दीवाना सही पर बात सुन ऐ हमनशीं मेरी
कि सबसे हाले-दिल कहता फिरूँ, आदत नहीं मेरी

तअम्मुल क़त्ल में तुझको मुझे मरने की जल्दी थी
ख़ता दोनों की है ,उसमें कहीं तेरी कहीं मेरी

भला क्यों रोकता है मुझको नासेह गिर्य: करने से
कि चश्मे-तर मेरा है, दिल मेरा है, आस्तीं मेरी

मुझे दुनिया के ग़म और फ़िक्र उक़बा की तुझे नासेह
चलो झगड़ा चुकाएँ आसमाँ तेरा ज़मीं मेरी

मैं सब कुछ देखते क्यों आ गया दामे-मुहब्बत में
चलो दिल हो गया था यार का, आंखें तो थीं मेरी

‘फ़राज़’ ऐसी ग़ज़ल पहले कभी मैंने न लिक्खी थी
मुझे ख़ुद पढ़के लगता है कि ये काविश नहीं मेरी
7.
 

तुझसे बिछड़ के हम भी मुकद्दर के हो गये 

तुझसे बिछड़ के हम भी मुकद्दर के हो गये
फिर जो भी दर मिला है उसी दर के हो गये

फिर यूँ हुआ के गैर को दिल से लगा लिया
अंदर वो नफरतें थीं के बाहर के हो गये

क्या लोग थे के जान से बढ़ कर अजीज थे
अब दिल से मेह नाम भी अक्सर के हो गये

ऐ याद-ए-यार तुझ से करें क्या शिकायतें
ऐ दर्द-ए-हिज्र हम भी तो पत्थर के हो गये

समझा रहे थे मुझ को सभी नसेहान-ए-शहर
फिर रफ्ता रफ्ता ख़ुद उसी काफिर के हो गये

अब के ना इंतेज़ार करें चारगर का हम
अब के गये तो कू-ए-सितमगर के हो गये

रोते हो एक जजीरा-ए-जाँ को "फ़राज़" तुम
देखो तो कितने शहर समंदर के हो गये

8.
यूँ तुझे ढूँढ़ने निकले के न आए ख़ुद भी

यूँ तुझे ढूँढ़ने निकले के न आए ख़ुद भी
वो मुसाफ़िर कि जो मंज़िल थे बजाए ख़ुद भी

कितने ग़म थे कि ज़माने से छुपा रक्खे थे
इस तरह से कि हमें याद न आए खुद भी

ऐसा ज़ालिम कि अगर ज़िक्र में उसके कोई ज़ुल्म
हमसे रह जाए तो वो याद दिलाए ख़ुद भी

लुत्फ़ तो जब है तअल्लुक़ में कि वो शहरे-जमाल
कभी खींचे कभी खिंचता चला आए ख़ुद भी

ऐसा साक़ी हो तो फिर देखिए रंगे-महफ़िल
सबको मदहोश करे होश से जाए ख़ुद भी

यार से हमको तगाफ़ुल का गिला है बेजा
बारहा महफ़िले-जानाँ से उठ आए ख़ुद भी 

9.
आज फिर दिल ने कहा आओ भुला दें यादें

 आज फिर दिल ने कहा आओ भुला दें यादें
ज़िंदगी बीत गई और वही यादें-यादें

जिस तरह आज ही बिछड़े हों बिछड़ने वाले
जैसे इक उम्र के दुःख याद दिला दें यादें

काश मुमकिन हो कि इक काग़ज़ी कश्ती की तरह
ख़ुदफरामोशी के दरिया में बहा दें यादें

वो भी रुत आए कि ऐ ज़ूद-फ़रामोश मेरे
फूल पत्ते तेरी यादों में बिछा दें यादें

जैसे चाहत भी कोई जुर्म हो और जुर्म भी वो
जिसकी पादाश में ताउम्र सज़ा दें यादें

भूल जाना भी तो इक तरह की नेअमत है ‘फ़राज़’
वरना इंसान को पागल न बना दें यादें  

10.
 ज़िन्दगी से यही गिला है मुझे 

 ज़िन्दगी से यही गिला है मुझे
तू बहुत देर से मिला है मुझे

हमसफ़र चाहिये हुजूम नहीं
इक मुसाफ़िर भी काफ़िला है मुझे

तू मोहब्बत से कोई चाल तो चल
हार जाने का हौसला है मुझे

लब कुशां हूं तो इस यकीन के साथ
कत्ल होने का हौसला है मुझे

दिल धडकता नहीं सुलगता है
वो जो ख्वाहिश थी आबला है मुझे

कौन जाने कि चाहतो में फ़राज़
क्या गंवाया है क्या मिला है मुझे 

11.
  बुझा है दिल तो ग़मे-यार अब कहाँ तू भी

 बुझा है दिल तो ग़मे-यार अब कहाँ तू भी
मिसाले साया-ए-दीवार अब कहाँ तू भी

बजा कि चश्मे-तलब भी हुई तही कीस
मगर है रौनक़े-बाज़ार अब कहाँ तू भी

हमें भी कारे-जहाँ ले गया है दूर बहुत
रहा है दर-पए आज़ार अब कहाँ तू भी

हज़ार सूरतें आंखों में फिरती रहती हैं
मेरी निगाह में हर बार अब कहाँ तू भी

उसी को अहद फ़रामोश क्यों कहें ऐ दिल
रहा है इतना वफ़ादार अब कहाँ तू भी

मेरी गज़ल में कोई और कैसे दर आए
सितम तो ये है कि ऐ यार अब कहाँ तू भी

जो तुझसे प्यार करे तेरी नफ़रतों के सबब
‘फ़राज़’ ऐसा गुनहगार अब कहाँ तू भी 

12.
 मैं तो मकतल में भी किस्मत का सिकंदर निकला  

मैं तो मकतल में भी किस्मत का सिकंदर निकला 
कुर्रा-ए-फाल मेरे नाम का अक्सर निकला

था जिन्हें जौम वो दरया भी मुझी में डूबे
मैं के सेहरा नज़र आता था, समंदर निकला

मैंने उस जान-ए-बहारां को भी बोहत याद किया
जब कोई फूल मेरी शाख-ए-हुनर पर निकला

शहर वालों की मुहब्बत का मैं कायल हूँ मगर
मैंने जिस हाथ को चूमा, वोही खंज़र निकला

तू यहीं हार गया था मेरे बुझदिल दुश्मन
मुझ से तन्हा के मुकाबिल, तेरा लश्कर निकला

मैं के सेहरा-ए-मुहब्बत का मुसाफिर था 'फ़राज़'
एक झोंका था के खुशबू के सफ़र पर निकला 

13.
जाने क्यों शिकस्त का अज़ाब लिए फिरता हूँ 
 जाने क्यों शिकस्त का अज़ाब लिए फिरता हूँ
मैं क्या हूँ और क्या लिए फिरता हूँ

उस ने इक बार किया था सवाल-ए-मुहब्बत
मैं हर एक लम्हा वफ़ा का ख्वाब लिए फिरता हूँ

उस ने पूछा कब से नहीं सोये
मैं तब से रत जगों का हिसाब लिए फिरता हूँ

उसकी ख्वाहिश थी कि मेरी आँखों में पानी दिखे
मैं उस वक्त से आंसू का सैलाब लिए फिरता हूँ

अफ़सोस के वो फिर भी मेरा न हुआ "फ़राज़"
मैं जिस की आरजू की किताब लिए फिरता हूँ
 

14.
क्यूँ तबीयत कहीं ठहरती नहीं

 क्यूँ तबीयत कहीं ठहरती नहीं
दोस्ती तो उदास करती नहीं

हम हमेशा के सैर-चश्म सही
तुझ को देखें तो आँख भरती नहीं

शब-ए-हिज्राँ भी रोज़-ए-बद की तरह
कट तो जाती है पर गुज़रती नहीं

ये मोहब्बत है, सुन, ज़माने, सुन!
इतनी आसानियों से मरती नहीं

जिस तरह तुम गुजारते हो "फ़राज़"
जिंदगी उस तरह गुज़रती नहीं
15.
 
जब तेरा दर्द मेरे साथ वफ़ा करता है

 जब तेरा दर्द मेरे साथ वफ़ा करता है
एक समन्दर मेरी आँखों से बहा करता है

उसकी बातें मुझे खुश्बू की तरह लगती है
फूल जैसे कोई सहरा में खिला करता है

मेरे दोस्त की पहचान ये ही काफ़ी है
वो हर शख़्स को दानिस्ता ख़फ़ा करता है

और तो कोई सबब उसकी मोहब्बत का नहीं
बात इतनी है के वो मुझसे जफ़ा करता है

जब ख़ज़ाँ आएगी तो लौट आएगा वो भी 'फ़राज़'
वो बहारों में ज़रा कम ही मिला करता है

16.
तड़प उठूँ भी तो ज़ालिम तेरी दुहाई न दूँ 

तड़प उठूँ भी तो ज़ालिम तेरी दुहाई न दूँ 
मैं ज़ख़्म ज़ख़्म हूँ फिर भी तुझे दिखाई न दूँ 

तेरे बदन में धड़कने लगा हूँ दिल की तरह 
ये और बात के अब भी तुझे सुनाई न दूँ 

ख़ुद अपने आपको परखा तो ये नदामत है 
के अब कभी उसे इल्ज़ाम-ए-बेवफ़ाई न दूँ 

मुझे भी ढूँढ कभी मह्व-ए-आईनादारी 
मैं तेरा अक़्स हूँ लेकिन तुझे दिखाई न दूँ
~अहमद फ़राज़

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