Thursday, 18 October 2012

शायर शहरयार , Shaharyar

शायर शहरयार 
 जन्म: 16 जून 1936
निधन: 13 फ़रवरी 2012
1.
इसे गुनाह कहें या कहें सवाब का काम

इसे गुनाह कहें या कहें सवाब का काम
नदी को सौंप दिया प्यास ने सराब का काम


हम एक चेह्रे को हर ज़ाविए से देख सकें
किसी तरह से मुकम्मल हो नक्शे-आब का काम


हमारी आँखे कि पहले तो खूब जागती हैं
फिर उसके बाद वो करतीं है सिर्फ़ ख़्वाब का काम


वो रात-कश्ती किनारे लगी कि डूब गई
सितारे निकले तो थे करने माहताब का काम


फ़रेब ख़ुद को दिए जा रहे हैं और ख़ुश हैं
उसे ख़बर है कि दुश्वार है हिजाब का काम
मायने: 

सराब = मरीचिका, जाविए = कोण, नक्शे-आब = जल्दी मिट जाने वाला निशान, हिजाब = पर्दा 
2.
कटेगा देखिए दिन जाने किस अज़ाब के साथ

कटेगा देखिए दिन जाने किस अज़ाब के साथ
कि आज धूप नहीं निकली आफ़ताब के साथ


तो फिर बताओ समंदर सदा को क्यूँ सुनते
हमारी प्यास का रिश्ता था जब सराब के साथ


बड़ी अजीब महक साथ ले के आई है
नसीम, रात बसर की किसी गुलाब के साथ


फ़िज़ा में दूर तक मरहबा के नारे हैं
गुज़रने वाले हैं कुछ लोग याँ से ख़्वाब के साथ


ज़मीन तेरी कशिश खींचती रही हमको
गए ज़रूर थे कुछ दूर माहताब के साथ 

3.
 ऐसे हिज्र के मौसम अब कब आते हैं

ऐसे हिज्र के मौसम अब कब आते हैं
तेरे अलावा याद हमें सब आते हैं

जज़्ब करे क्यों रेत हमारे अश्कों को
तेरा दामन तर करने अब आते हैं

अब वो सफ़र की ताब नहीं बाक़ी वरना
हम को बुलावे दश्त से जब-तब आते हैं

जागती आँखों से भी देखो दुनिया को
ख़्वाबों का क्या है वो हर शब आते हैं

काग़ज़ की कश्ती में दरिया पार किया
देखो हम को क्या-क्या करतब आते हैं

4.
  कहीं ज़रा सा अँधेरा भी कल की रात न था
 कहीं ज़रा सा अँधेरा भी कल की रात न था
गवाह कोई मगर रौशनी के साथ न था।

सब अपने तौर से जीने के मुद्दई थे यहाँ
पता किसी को मगर रम्ज़े-काएनात न था

कहाँ से कितनी उड़े और कहाँ पे कितनी जमे
बदन की रेत को अंदाज़-ए-हयात न था

मेरा वजूद मुनव्वर है आज भी उस से
वो तेरे क़ुब का लम्हा जिसे सबात न था

मुझे तो फिर भी मुक़द्दर पे रश्क आता है
मेरी तबाही में हरचंद तेरा हाँथ न था
 
5. 

किस्सा मेरे जुनूँ का बहुत याद आयेगा


किस्सा मेरे जुनूँ का बहुत याद आयेगा
जब-जब कोई चिराग हवा में जलाएगा

रातों को जागते है, इसी वास्ते कि ख्वाब
देखेगा बंद आँखे तो फिर लौट जायेगा

कब से बचा रखी है इक बूँद ओस की
किस रोज़ तू वफ़ा को मेरी आजमायेगा

कागज की कश्तियाँ भी बड़ी काम आयेगी
जिस दिन हमारे शहर में सैलाब आयेगा

दिल को यकीन है कि सर-ए-रहगुज़ार-ए-इश्क
कोई फर्सुदा दिल ये ग़ज़ल गुनगुनाएगा

मायने :
सर-ए-रहगुज़ार-ए-इश्क = प्रेम की राह में, फर्सुदा = उदास
6.

तेरी गली से दबे पांव क्यूँ गुजरता हूँ?


तेरी गली से दबे पांव क्यूँ गुजरता हूँ?
वो ऐसा क्या है? जिसे देखने से डरता हूँ

किसी उफ़क़ की ज़रूरत है मेरी आँखों को
सो खल्क आज नया आसमान करता हूँ

उतारना है मुझे कर्ज कितने लोगो का
ज़रा सुकून मिले तो हिसाब करता हूँ

अजब नहीं है कि किसी याद का गुहर मिल जाए
गये दिनों के समन्दर में फिर उतरता हूँ

बड़े जातन से, बड़े एहतिमाम से तुझको
भुला रहा हूँ, मोहब्बत का दम भी भरता हूँ

उफ़क़ = क्षितिज, खल्क = निर्माण करना, एहतिमाम = प्रबंध 

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1 comment:

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