Friday 30 November 2012

Aitbar Sajid, एतबार साजिद

Aitbar Sajid
1.
मेरी रातों की राहत, दिन के इत्मिनान ले जाना

 मेरी रातों की राहत, दिन के इत्मिनान ले जाना
तुम्हारे काम आ जायेगा, यह सामान ले जाना

तुम्हारे बाद क्या रखना अना से वास्ता कोई ?
तुम अपने साथ मेरा उम्र भर का मान ले जाना

शिकस्ता के कुछ रेज़े पड़े हैं फर्श पर, चुन लो
अगर तुम जोड़ सको तो यह गुलदान ले जाना

अंदर अल्मारिओं में चंद ऑराक़ परेशां है
मेरे ये बाकि मंदा ख्वाब, मेरी जान! ले जाना

तुम्हें ऐसे तो खाली हाथ रुखसत कर नहीं सकते
पुरानी दोस्ती है, की कुछ पहचान ले जाना

इरादा कर लिया है तुमने गर सचमुच बिछड़ने का
तो फिर अपने यह सारे वादा-ओ-पैमान ले जाना

अगर थोड़ी बहुत है, शायरी से उनको दिलचस्पी
तो उनके सामने मेरा यह दीवान ले जाना
Meaning : Ana=self respect

2. 
कोई कैसा हम सफर है, ये अभी से मत बताओ 

 कोई कैसा हम सफर है, ये अभी से मत बताओ
अभी क्या पता किसी का, के चली नहीं है नाव

ये ज़रूरी तो नहीं है, के सदा रहे मरासिम
ये सफर की दोस्ती है, इसे रोग मत बनाओ

मेरे चारागर बोहत हैं, ये खलिश मगर है दिल में
कोई ऐसा हो के, जिस को हों अज़ीज़ मेरे घाव

तुम्हें आईनागिरी में है, बोहत कमाल हासिल
मेरा दिल है किरच किरच, इसे जोड़ के दिखाओ

कोई कैस था तो होगा, कोई कोकाहन था होगा
मेरे रंज मुख्तलिफ हैं, मुझे उनसे मत मिलाओ

मुझे क्या पड़ी है "साजिद", के पराई आग मांगू
मैं ग़ज़ल का आदमी हूँ, मेरे अपने हैं अलाव

मायने : चारागर=चिकित्सक, कैस= मजनू का दूसरा नाम
3.
 

यूँ ही सी एक बात थी, उस का मलाल क्या करें 

 यूँ ही सी एक बात थी, उस का मलाल क्या करें
मीर-ए-खराब हाल सा अपना भी हाल, क्या करे?

ऐसी फिजा के कहर में ऐसी हवा के ज़हर में
जिंदा हैं ऐसे शहर में और कमाल क्या करें?

और बहुत सी उलझने तूक-ओ-रसं से बढ़ के हैं
ज़िक्र-ए-ज़माल क्या करे, फ़िक्र-ए-विसाल क्या करें?

ढूंढ़ लिए है चारागर हमने दियार-ए-गैर में
घर में हमारा कौन है, घर का ख्याल क्या करें?

चुनते है दिल की किरचियाँ बिखरी हैं जो यहाँ-वहाँ 
होना था एक दिन यही, रंज-माल क्या करें?

उसकी नज़र में कैद हैं अपनी तमाम मुन्ताकिन
तेक-ए-ख्याल क्या करें, हर्फ़ की ढाल क्या करें?

  4. 
तुम्हारे जैसे लोग जबसे मेहरबान नहीं रहे 

 तुम्हारे जैसे लोग जबसे मेहरबान नहीं रहे
तभी से ये मेरे जमीन-ओ-आसमान नहीं रहे

खंडहर का रूप धरने लगे है बाग शहर के
वो फूल-ओ-दरख्त, वो समर यहाँ नहीं रहे

सब अपनी अपनी सोच अपनी फिकर के असीर हैं
तुम्हारें शहर में मेरे मिजाज़ दा नहीं रहें

उसे ये गम है, शहर ने हमारी बात जान ली
हमें ये दुःख है उस के रंज भी निहां नहीं रहे

बोहत है यूँ तो मेरे इर्द-गिर्द मेरे आशना
तुम्हारे बाद धडकनों के राजदान नहीं रहे

असीर हो के रह गए हैं शहर की फिजाओं में
परिंदे वाकई चमन के तर्जुमान नहीं रहे
5.
 
तुम को तो ये सावन की घटा कुछ नहीं कहती 

 तुम को तो ये सावन की घटा कुछ नहीं कहती
हम सोख्ता लोगो को ये क्या कुछ नहीं कहती

हो लाख कोई शोर मचाता हुआ मौसम
दिल चुप हो तो बहार की फिजा कुछ नहीं कहती

क्यूँ रेत पे बैठे हो झुकाए हुए सर को
के तुमको समंदर की हवा कुछ नहीं कहती

पूछा के शिकायत तो नहीं है उसे हमसे
आहिस्ता से कासिद ने "कहा कुछ नहीं कहती"

पूछा के जुदाई का कोई हल भी निकला ?
कासिद ने दुबारा कहा"कुछ नहीं कहती"

ऐ नुक्ता-ए-दर्द! ये तो बताओ के सारे शब
क्या शमा फरोज़ा से हवा कुछ नहीं कहती
6.

ऐसा नहीं के तेरे बाद अहल-ए-करम नहीं मिले 

 ऐसा नहीं के तेरे बाद अहल-ए-करम नहीं मिले
तुझ सा नहीं मिला कोई, लोग तो कम नहीं मिले

इक तेरी जुदाई के दर्द की बात और है
जिन को न सह सके ये दिल, ऐसे तो गम नहीं मिले

तुझ से बिछड़ने की खता, इस के सिवा है और क्या
मिल न सकी तबीयतें, अपने कदम नहीं मिले

ये तो हुआ के इश्क में नाम बोहत कमा लिया
खुद को बोहत गवां लिया, दाम-ओ-धरम नहीं मिले

ऐसा दियार-ए-हिज्र ने हम को असीर कर लिया
और किसी का ज़िक्र क्या? खुद को भी हम नहीं मिले
7.
 
भरी महफ़िल में तन्हाई का आलम ढूंढ़ लेता हूँ

 भरी महफ़िल में तन्हाई का आलम ढूंढ़ लेता हूँ
जहाँ जाता हूँ अपने दिल का मौसम ढूंढ़ लेता हूँ

अकेला खुद को जब ये महसूस करता हूँ किसी लम्हे
किसी उम्मीद का चेहरा, कोई गम ढूंढ़ लेता हूँ

बोहत हंसी नजर आती हैं जो ऑंखें सर-ए-महफ़िल
मैं इन आँखों के पीछे चस्म-ए-पूर्णम ढूंढ़ लेता हूँ

गले लग कर किसी के चाहता हूँ जब कभी रोना
शिकस्ता कोई अपने जैसा हम दम ढूंढ़ लेता हूँ

कलेंडर से नहीं मशरूत मेरे रात दिन "साजिद"
मैं जैसा चाहता हूँ वैसा मौसम ढूंढ़ लेता हूँ 

 8.
फिर उसके जाते ही दिल सुनसान हो कर रह गया


फिर उसके जाते ही दिल सुनसान हो कर रह गया
अच्छा भला इक शहर वीरान हो कर रह गया

हर नक्श बतल हो गया अब के दयार-ए-हिज्र में
इक ज़ख्म गुज़रे वक्त की पहचान हो कर रह गया

रुत ने मेरे चारों तरफ खींचें हिसार-ए-बाम-ओ-दर
यह शहर फिर मेरे लिए ज़ान्दान हो कर रह गया

कुछ दिन मुझे आवाज़ दी लोगों ने उस के नाम से
फिर शहर भर में वो मेरी पहचान हो कर रह गया

इक ख्वाब हो कर रह गई गुलशन से अपनी निस्बतें
दिल रेज़ा रेज़ा कांच का गुलदान हो कर रह गया

हर सात-ए-आराम-ए-दिल हर लम्हा तस्कीन-ए-जान
बिछड़े हुए इक शख्स का पैमान हो कर रह गया

ख्वाहिश तो थी "साजिद" मुझे तशीर-ए-मेहर-ओ-माह की
लेकिन फ़क़त मैं साहिब-ए-दीवान हो कर रह गया
मायने:
ज़ान्दान : Prison
निस्बतें : Relations
9.
गम सुम आँखे, सूनी साँसें, टूटती जुडती उम्मीदें
डरता हूँ यूँ कैसे कटेगी, उम्र हैं कोई रात नहीं
10.
किसी दिन, चाहते हैं


किसी दिन, चाहते हैं
चुपके से हम उस के जीने पर
कोई जलता दिया,
कुछ फूल
रख आयें
के अपने बचपन में
वो अंधेरों से भी डरता था
उसेफूलों की खुशबू से भी रघबत थी
बोहत मुमकिन है, अब भी
शब की तारीकी से उस को खौफ आता हो
महकते फूल शायद बैस-ए-तस्कीन अब भी हों
सो इस इमकान पर
इक शाम उस के नाम करते हैं
चलो यह काम करते हैं! 

 11.
मेरी राहों के


मेरी राहों के
जो जुगनू हैं
वो तेरे हैं
तेरी आँखों के
जो अँधेरे हैं
वो मेरे है
छू सकता नहीं
कोई गम तुझको
क्यूंकि
तुझ पर दुआओं के जो
पहरे हैं
वो मेरे हैं
12.
अभी आग पूरी जली नहीं


अभी आग पूरी जली नहीं, अभी शोले ऊँचे उठे नहीं
अभी कहाँ का हूँ मैं गज़लसारा, मेरे खाल-ओ-खद अभी बने नहीं

अभी सीनाजोर नहीं हुआ, मेरे दिल के गम का मामला
कोई गहरा दर्द मिला नहीं, अभी ऐसे चरके लगे नहीं

इस सैल-ए-नूर की निश्बतों से मेरे दरीचा-ए-दिल में आ
मेरे ताकचिनो में है रौशनी, अभी ये चराग बुझे नहीं

न मेरे ख्याल की अंजुमन, न मेरे मिजाज़ की शायरी
सो कयाम करता मैं किस जगह, मेरे लोग मुझको मिले नहीं

मेरी शोहरतों के जो दाग हैं, मेरी मेहनतों के ये बाग़ हैं
ये माता-ओ-माल-ए-शिकस्तागान है, ज़कात में तो मिले नहीं

अभी बीच में हैं ये माजरा, सो रहेगा जारी ये सिलसिला
के बिसात-ए-हर्फ़-ओ-ख्याल पर अभी पूरे मोहरे सजे नहीं
13.
वोही लोग मुझसे बिछड़ गए


जो ख्याल थे, न कयास थे, वोही लोग मुझसे बिछड़ गए
जो मोहब्बतों की आस थे, वोही लोग मुझसे बिछड़ गए

जिन्हें मानता नहीं ये दिल, वोही लोग मेरे है हमसफ़र
मुझे हर तरह से जो रास थे, वोही लोग मुझसे बिछड़ गए

मुझे लम्हा भर की रफ़ाक़तों के सराब बोहत सतायेंगे
मेरी उम्र भर की प्यास थे, वोही लोग मुझसे बिछड़ गए

ये जो जाल सारे है आरजी, ये गुलाब सारे है कागजी
गुल-ए-आरजू की जो बास थे, वोही लोग मुझसे बिछड़ गए

जिन्हें कर सका न क़ुबूल मैं, वोही शरीक-ए-राह सफ़र हुए
जो मेरी तलब, मेरी आस थे, वोही लोग मुझसे बिछड़ गए

मेरी धडकनों के करीब थे, मेरी चाह थे, मेरा ख्वाब थे
वो जो रोज़-ओ-शब मेरे पास थे, वोही लोग मुझसे बिछड़ गए

14.

इतनी क्या बेजारी है

तर्क-ए-वफ़ा तुम क्यों करते हो ? इतनी क्या बेजारी है

हम ने कोई शिकयत की है ? बेशक जान हमारी है

 

तुम ने खुद को बाँट दिया है कैसे इतनी खानों में

सच्चों से भी दुआ सलाम है, झूठों से भी यारी है

 

कैसा हिज्र क़यामत का है, लहू में शोले नाचते हैं

आंखें बंद नहीं हो पाती, नींद हवस पे तारी है 

 

तुम ने हासिल कर ली होगी शायद अपनी मंजिल-ए-शौक़  

हम तो हमेशा के राही हैं, अपना सफ़र तो जारी है

 

पत्थर दिल बे ’हिस लोगों को यह नुक्ता कैसे समझाएं

इश्क में क्या बे’अंत नशा है, यह कैसी सरशारी है 

 

तुम ने कब देखी है तन्हाई और सन्नाटे की आग

इन शोलों में इस दोज़ख में हम ने उम्र गुजारी है ..

सरशारी = tremendous, Fullness, Dedicated

No comments:

Post a Comment