Ehsan Danish
1914 - 1982
1.
न सियो होंट, न ख़्वाबों में सदा दो हम को
न सियो होंट, न ख़्वाबों में सदा दो हम को
मस्लेहत का ये तकाज़ा है, भुला दो हम को
हम हक़ीक़त हैं, तो तसलीम न करने का सबब
हां,अगर हर्फ़-ए-ग़लत हैं तो मिटा दो हम को
शोरिश-ए-इश्क़ में है हुस्न बराबर का शरीक
सोच कर ज़ुर्म-ए-मोहब्बत की सज़ा दो हम को
मक़सद-जीस्त ग़म-ए-इश्क़ है सहरा हो कि शहर
बैठ जाएंगे जहां चाहे बिठा दो हम को
2.
रसिश-ए-ग़म का शुक्रिया
रसिश-ए-ग़म का शुक्रिया, क्या तुझे आगाही नहीं
तेरे बग़ैर ज़िन्दगी दर्द है, ज़िन्दगी नहीं
दौर था एक गुज़र गया, नशा था एक उतर गया
अब वो मुक़ाम है जहाँ शिक्वा-ए-बेरुख़ी नहीं
तेरे सिवा करूँ पसंद क्या तेरी क़ायनात में
दोनों जहाँ की नेअमतें, क़ीमत-ए-बंदगी नहीं
लाख ज़माना ज़ुल्म ढाये, वक़्त न वो ख़ुदा दिखाये
जब मुझे हो यक़ीं कि तू हासिल-ए-ज़िन्दगी नहीं
दिल की शगुफ़्तगी के साथ राहत-ए-मयकदा गई
फ़ुर्सत-ए-मयकशि तो है, हसरत-ए-मयकशी गई
ज़ख़्म पे ज़ख़्म खाके जी, अपने लहू के घूँट पी
आह न कर, लबों को सी, इश्क़ है दिल्लगी नहीं
देख के ख़ुश्क-ओ-ज़र्द फूल, दिल है कुछ इस तरह मलूल
जैसे तेरी ख़िज़ाँ के बाद, दौर-ए-बहार ही नहीं
3.
यूँ न मिल मुझसे ख़फ़ा हो जैसे
यूँ न मिल मुझसे ख़फ़ा हो जैसे
साथ चल मौज-ए-सबा हो जैसे
लोग यूँ देख कर हँस देते हैं
तू मुझे भूल गया हो जैसे
इश्क़ को शिर्क की हद तक न बढ़ा
यूँ न मिल हमसे ख़ुदा हो जैसे
मौत भी आई तो इस नाज़ के साथ
मुझपे एहसान किया हो जैसे
ऐसे अंजान बने बैठे हो
तुम को कुछ भी न पता हो जैसे
हिचकियाँ रात को आती ही रहीं
तू ने फिर याद किया हो जैसे
ज़िन्दगी बीत रही है "दानिश"
एक बेजुर्म सज़ा हो जैसे
(मौज-ए-सबा: हवा का झोंका, शिर्क: ईश्वर को बुरा भला कहना)
4.
सिर्फ़ अश्क-ओ-तबस्सुम में उलझे रहे
सिर्फ़ अश्क-ओ-तबस्सुम में उलझे रहे
हमने देखा नहीं ज़िन्दगी की तरफ़
रात ढलते जब उनका ख़याल आ गया
टिक-टिकी बँध गई चाँदनी की तरफ़
कौन सा जुर्म है, क्या सितम हो गया
आँख अगर उठ गई, आप ही की तरफ़
जाने वो मुल्तफ़ित हों किधर बज़्म में
आँसूओं की तरफ़ या हँसी की तरफ़
1914 - 1982
1.
न सियो होंट, न ख़्वाबों में सदा दो हम को
न सियो होंट, न ख़्वाबों में सदा दो हम को
मस्लेहत का ये तकाज़ा है, भुला दो हम को
हम हक़ीक़त हैं, तो तसलीम न करने का सबब
हां,अगर हर्फ़-ए-ग़लत हैं तो मिटा दो हम को
शोरिश-ए-इश्क़ में है हुस्न बराबर का शरीक
सोच कर ज़ुर्म-ए-मोहब्बत की सज़ा दो हम को
मक़सद-जीस्त ग़म-ए-इश्क़ है सहरा हो कि शहर
बैठ जाएंगे जहां चाहे बिठा दो हम को
2.
रसिश-ए-ग़म का शुक्रिया
रसिश-ए-ग़म का शुक्रिया, क्या तुझे आगाही नहीं
तेरे बग़ैर ज़िन्दगी दर्द है, ज़िन्दगी नहीं
दौर था एक गुज़र गया, नशा था एक उतर गया
अब वो मुक़ाम है जहाँ शिक्वा-ए-बेरुख़ी नहीं
तेरे सिवा करूँ पसंद क्या तेरी क़ायनात में
दोनों जहाँ की नेअमतें, क़ीमत-ए-बंदगी नहीं
लाख ज़माना ज़ुल्म ढाये, वक़्त न वो ख़ुदा दिखाये
जब मुझे हो यक़ीं कि तू हासिल-ए-ज़िन्दगी नहीं
दिल की शगुफ़्तगी के साथ राहत-ए-मयकदा गई
फ़ुर्सत-ए-मयकशि तो है, हसरत-ए-मयकशी गई
ज़ख़्म पे ज़ख़्म खाके जी, अपने लहू के घूँट पी
आह न कर, लबों को सी, इश्क़ है दिल्लगी नहीं
देख के ख़ुश्क-ओ-ज़र्द फूल, दिल है कुछ इस तरह मलूल
जैसे तेरी ख़िज़ाँ के बाद, दौर-ए-बहार ही नहीं
3.
यूँ न मिल मुझसे ख़फ़ा हो जैसे
यूँ न मिल मुझसे ख़फ़ा हो जैसे
साथ चल मौज-ए-सबा हो जैसे
लोग यूँ देख कर हँस देते हैं
तू मुझे भूल गया हो जैसे
इश्क़ को शिर्क की हद तक न बढ़ा
यूँ न मिल हमसे ख़ुदा हो जैसे
मौत भी आई तो इस नाज़ के साथ
मुझपे एहसान किया हो जैसे
ऐसे अंजान बने बैठे हो
तुम को कुछ भी न पता हो जैसे
हिचकियाँ रात को आती ही रहीं
तू ने फिर याद किया हो जैसे
ज़िन्दगी बीत रही है "दानिश"
एक बेजुर्म सज़ा हो जैसे
(मौज-ए-सबा: हवा का झोंका, शिर्क: ईश्वर को बुरा भला कहना)
4.
सिर्फ़ अश्क-ओ-तबस्सुम में उलझे रहे
सिर्फ़ अश्क-ओ-तबस्सुम में उलझे रहे
हमने देखा नहीं ज़िन्दगी की तरफ़
रात ढलते जब उनका ख़याल आ गया
टिक-टिकी बँध गई चाँदनी की तरफ़
कौन सा जुर्म है, क्या सितम हो गया
आँख अगर उठ गई, आप ही की तरफ़
जाने वो मुल्तफ़ित हों किधर बज़्म में
आँसूओं की तरफ़ या हँसी की तरफ़
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