Saturday 24 November 2012

Faiz Ahmed Faiz

Faiz Ahmed Faiz
1911-1984
1.
मुझसे पहली मुहब्बत मेरी महबूब न मांग 

मैनें समझा कि तू तो दरख्शां है हयात 
तेरा गम है तो गमे-दहर का झगडा क्या है
तेरी सूरत से है आलम में बहारों को सबात
तेरी आँखों के सिवा दुनियां में रखा क्या हैं ?

तू जो मिल जाये तो तकदीर निगूं हो जाये
यूँ न था, मैने फकत चाहा था यूँ हो जाये

और भी दुःख है जमाने में मुहब्बत के सिवा
राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा
अनगिनत सदियों के तारीक बहीमाना तिलिस्म
रेशमो-अतलसो-कम ख्वाब में बुनवाये हुए
जा-ब-जा बिकते कूचा-ओ-बाज़ार में जिस्म
खाक में लिथड़े हुए खून में नहलाये हुए
       
लौट जाती है उधर को भी नज़र क्या कीजे
अब भी दिलकश है तेरा हुस्न, मगर क्या कीजे

और भी दुख है जमाने में मुहोब्बत के सिवा
राहतें और भी है वस्ल कि राहत के सिवा
मुझसे पहली से मुहब्बत मेरे महबूब न मांग
           
दरख्शां=रौशन, हयात=जीवन, गमे दहर=जमाने का दुःख, आलम=दुनियां, सबात=ठहराव, निगूं होना=बदल जाना, वस्ल की राहत=मिलन का आनंद, तारीक=अँधेरा, बहीमाना=पशुवत, रेशमो-अतलसो-कमख्वाब=रेशम, अलतस और मलमल, जा-ब-जा=जगह-जगह.
 2.
हम पर तुम्हारी चाह का इलज़ाम ही तो है 
हम पर तुम्हारी चाह का इलज़ाम ही तो है 
दुश्मन तो नहीं है, ये इकराम ही तो है 

करते हैं जिस पे तान, कोई जुर्म तो नहीं 
शौक़-ए-फुजूल-ओ-उल्फत-ए-नाकाम ही तो है 
[taa'n=satire] 

दिल मुद्दई के हर्फ़-ए-मलामत से शाद है
ऐ जान-ए-जां ये हर्फ़ तेरा नाम ही तो है
[harf-e-malaamat=word of criticism]

दिल ना-उम्मीद तो नहीं, नाकाम ही तो है
लम्बी है गम की शाम, मगर शाम ही तो है

दस्त-ए-फलक में, गर्दिश-ए-तक़दीर तो नहीं
दस्त-ए-फलक में, गर्दिश-ए-अय्याम ही तो है

आखिर तो एक रोज़ करेगी नज़र वफ़ा
वो य़ार -ए-खुश-खसाल सर-ए-बाम ही तो है
[Khush_Khasaal=virtuous]

भीगी है रात 'फैज़' ग़ज़ल इब्तिदा करो
वक़्त-ए-सरोद दर्द का हंगाम ही तो है
~फैज़ अहमद फैज़
Montogomery Jail
9th March, 1954

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