Thursday, 6 December 2012

Kaleem Ajiz, कलीम अज़ीज़

Kaleem Ajiz
1. 
दिन एक सितम, एक सितम रात करे हो 

 दिन एक सितम, एक सितम रात करे हो
वो दोस्त हो, दुश्मन को भी मात करो हो

हम खाक-नशीं, तुम सुखन-आरा-ए-सर-ए-बाम
पास आ के मिलो, दूर से क्या बात करो हो

हमको जो मिला है, वो तुम्ही से तो मिला है
हम, और, भुला दें तुम्हें, क्या बात करो हो!

दामन पे कोई छींट, न खंजर पे कोई दाग
तुम कत्ल करे हो, के करामात करो हो

बकने भी दो अज़ीज़ को, जो बोले है सो बके है
दीवाना है, दीवाने से क्या बात करो हो
2.
 
ये दीवाने कभी पाबंदियों का गम नहीं लेंगे

 ये दीवाने कभी पाबंदियों का गम नहीं लेंगे
गरेबां चाक जब तक कर न लेंगे, दम नहीं लेंगे

लहू देंगे तो लेंगे प्यार, मोती हम नहीं लेंगे
हमें फूलों के बदले फूल दो, शबनम नहीं लेंगे

मुहब्बत करने वाले भी अजब खुद्दार होते है
जिगर पर ज़ख्म लेंगे, ज़ख्म पर मरहम नहीं लेंगे

संवारें जा रहे हैं हम, तो उलझी जाती हैं ज़ुल्फें
तुम अपने जिम्मे लो, अब ये बखेड़ा हम नहीं लेंगे
3.
 
ज़ालिम था वो और ज़ुल्म की आदत भी बहुत थी 

 ज़ालिम था वो और ज़ुल्म की आदत भी बहुत थी
मजबूर थे हम उस से मुहब्बत भी बहुत थी

उस बुत के सितम सह के दिखा ही दिया हम ने
गो अपनी तबियत में बगावत भी बहुत थी

वाकिफ ही न था रंज-ए-मुहब्बत से वो वरना
दिल के लिए थोड़ी सी इनायत भी बहुत थी

यूं ही नहीं मशहूर-ए-ज़माना मेरा कातिल
उस शख्स को इस फन में महारत भी बहुत थी

क्या दौर-ए-ग़ज़ल था के लहू दिल में बहुत था
और दिल को लहू करने की फुर्सत भी बहुत थी

हर शाम सुनाते थे हसीनो को ग़ज़ल हम 
जब माल बहुत था तो सखावत भी बहुत थी

बुलावा के हम "अजीज" को पशेमान भी बहुत हैं
क्या कीजिये कमबख्त की शोहरत भी बहुत थी

Friday, 30 November 2012

Aitbar Sajid, एतबार साजिद

Aitbar Sajid
1.
मेरी रातों की राहत, दिन के इत्मिनान ले जाना

 मेरी रातों की राहत, दिन के इत्मिनान ले जाना
तुम्हारे काम आ जायेगा, यह सामान ले जाना

तुम्हारे बाद क्या रखना अना से वास्ता कोई ?
तुम अपने साथ मेरा उम्र भर का मान ले जाना

शिकस्ता के कुछ रेज़े पड़े हैं फर्श पर, चुन लो
अगर तुम जोड़ सको तो यह गुलदान ले जाना

अंदर अल्मारिओं में चंद ऑराक़ परेशां है
मेरे ये बाकि मंदा ख्वाब, मेरी जान! ले जाना

तुम्हें ऐसे तो खाली हाथ रुखसत कर नहीं सकते
पुरानी दोस्ती है, की कुछ पहचान ले जाना

इरादा कर लिया है तुमने गर सचमुच बिछड़ने का
तो फिर अपने यह सारे वादा-ओ-पैमान ले जाना

अगर थोड़ी बहुत है, शायरी से उनको दिलचस्पी
तो उनके सामने मेरा यह दीवान ले जाना
Meaning : Ana=self respect

2. 
कोई कैसा हम सफर है, ये अभी से मत बताओ 

 कोई कैसा हम सफर है, ये अभी से मत बताओ
अभी क्या पता किसी का, के चली नहीं है नाव

ये ज़रूरी तो नहीं है, के सदा रहे मरासिम
ये सफर की दोस्ती है, इसे रोग मत बनाओ

मेरे चारागर बोहत हैं, ये खलिश मगर है दिल में
कोई ऐसा हो के, जिस को हों अज़ीज़ मेरे घाव

तुम्हें आईनागिरी में है, बोहत कमाल हासिल
मेरा दिल है किरच किरच, इसे जोड़ के दिखाओ

कोई कैस था तो होगा, कोई कोकाहन था होगा
मेरे रंज मुख्तलिफ हैं, मुझे उनसे मत मिलाओ

मुझे क्या पड़ी है "साजिद", के पराई आग मांगू
मैं ग़ज़ल का आदमी हूँ, मेरे अपने हैं अलाव

मायने : चारागर=चिकित्सक, कैस= मजनू का दूसरा नाम
3.
 

यूँ ही सी एक बात थी, उस का मलाल क्या करें 

 यूँ ही सी एक बात थी, उस का मलाल क्या करें
मीर-ए-खराब हाल सा अपना भी हाल, क्या करे?

ऐसी फिजा के कहर में ऐसी हवा के ज़हर में
जिंदा हैं ऐसे शहर में और कमाल क्या करें?

और बहुत सी उलझने तूक-ओ-रसं से बढ़ के हैं
ज़िक्र-ए-ज़माल क्या करे, फ़िक्र-ए-विसाल क्या करें?

ढूंढ़ लिए है चारागर हमने दियार-ए-गैर में
घर में हमारा कौन है, घर का ख्याल क्या करें?

चुनते है दिल की किरचियाँ बिखरी हैं जो यहाँ-वहाँ 
होना था एक दिन यही, रंज-माल क्या करें?

उसकी नज़र में कैद हैं अपनी तमाम मुन्ताकिन
तेक-ए-ख्याल क्या करें, हर्फ़ की ढाल क्या करें?

  4. 
तुम्हारे जैसे लोग जबसे मेहरबान नहीं रहे 

 तुम्हारे जैसे लोग जबसे मेहरबान नहीं रहे
तभी से ये मेरे जमीन-ओ-आसमान नहीं रहे

खंडहर का रूप धरने लगे है बाग शहर के
वो फूल-ओ-दरख्त, वो समर यहाँ नहीं रहे

सब अपनी अपनी सोच अपनी फिकर के असीर हैं
तुम्हारें शहर में मेरे मिजाज़ दा नहीं रहें

उसे ये गम है, शहर ने हमारी बात जान ली
हमें ये दुःख है उस के रंज भी निहां नहीं रहे

बोहत है यूँ तो मेरे इर्द-गिर्द मेरे आशना
तुम्हारे बाद धडकनों के राजदान नहीं रहे

असीर हो के रह गए हैं शहर की फिजाओं में
परिंदे वाकई चमन के तर्जुमान नहीं रहे
5.
 
तुम को तो ये सावन की घटा कुछ नहीं कहती 

 तुम को तो ये सावन की घटा कुछ नहीं कहती
हम सोख्ता लोगो को ये क्या कुछ नहीं कहती

हो लाख कोई शोर मचाता हुआ मौसम
दिल चुप हो तो बहार की फिजा कुछ नहीं कहती

क्यूँ रेत पे बैठे हो झुकाए हुए सर को
के तुमको समंदर की हवा कुछ नहीं कहती

पूछा के शिकायत तो नहीं है उसे हमसे
आहिस्ता से कासिद ने "कहा कुछ नहीं कहती"

पूछा के जुदाई का कोई हल भी निकला ?
कासिद ने दुबारा कहा"कुछ नहीं कहती"

ऐ नुक्ता-ए-दर्द! ये तो बताओ के सारे शब
क्या शमा फरोज़ा से हवा कुछ नहीं कहती
6.

ऐसा नहीं के तेरे बाद अहल-ए-करम नहीं मिले 

 ऐसा नहीं के तेरे बाद अहल-ए-करम नहीं मिले
तुझ सा नहीं मिला कोई, लोग तो कम नहीं मिले

इक तेरी जुदाई के दर्द की बात और है
जिन को न सह सके ये दिल, ऐसे तो गम नहीं मिले

तुझ से बिछड़ने की खता, इस के सिवा है और क्या
मिल न सकी तबीयतें, अपने कदम नहीं मिले

ये तो हुआ के इश्क में नाम बोहत कमा लिया
खुद को बोहत गवां लिया, दाम-ओ-धरम नहीं मिले

ऐसा दियार-ए-हिज्र ने हम को असीर कर लिया
और किसी का ज़िक्र क्या? खुद को भी हम नहीं मिले
7.
 
भरी महफ़िल में तन्हाई का आलम ढूंढ़ लेता हूँ

 भरी महफ़िल में तन्हाई का आलम ढूंढ़ लेता हूँ
जहाँ जाता हूँ अपने दिल का मौसम ढूंढ़ लेता हूँ

अकेला खुद को जब ये महसूस करता हूँ किसी लम्हे
किसी उम्मीद का चेहरा, कोई गम ढूंढ़ लेता हूँ

बोहत हंसी नजर आती हैं जो ऑंखें सर-ए-महफ़िल
मैं इन आँखों के पीछे चस्म-ए-पूर्णम ढूंढ़ लेता हूँ

गले लग कर किसी के चाहता हूँ जब कभी रोना
शिकस्ता कोई अपने जैसा हम दम ढूंढ़ लेता हूँ

कलेंडर से नहीं मशरूत मेरे रात दिन "साजिद"
मैं जैसा चाहता हूँ वैसा मौसम ढूंढ़ लेता हूँ 

 8.
फिर उसके जाते ही दिल सुनसान हो कर रह गया


फिर उसके जाते ही दिल सुनसान हो कर रह गया
अच्छा भला इक शहर वीरान हो कर रह गया

हर नक्श बतल हो गया अब के दयार-ए-हिज्र में
इक ज़ख्म गुज़रे वक्त की पहचान हो कर रह गया

रुत ने मेरे चारों तरफ खींचें हिसार-ए-बाम-ओ-दर
यह शहर फिर मेरे लिए ज़ान्दान हो कर रह गया

कुछ दिन मुझे आवाज़ दी लोगों ने उस के नाम से
फिर शहर भर में वो मेरी पहचान हो कर रह गया

इक ख्वाब हो कर रह गई गुलशन से अपनी निस्बतें
दिल रेज़ा रेज़ा कांच का गुलदान हो कर रह गया

हर सात-ए-आराम-ए-दिल हर लम्हा तस्कीन-ए-जान
बिछड़े हुए इक शख्स का पैमान हो कर रह गया

ख्वाहिश तो थी "साजिद" मुझे तशीर-ए-मेहर-ओ-माह की
लेकिन फ़क़त मैं साहिब-ए-दीवान हो कर रह गया
मायने:
ज़ान्दान : Prison
निस्बतें : Relations
9.
गम सुम आँखे, सूनी साँसें, टूटती जुडती उम्मीदें
डरता हूँ यूँ कैसे कटेगी, उम्र हैं कोई रात नहीं
10.
किसी दिन, चाहते हैं


किसी दिन, चाहते हैं
चुपके से हम उस के जीने पर
कोई जलता दिया,
कुछ फूल
रख आयें
के अपने बचपन में
वो अंधेरों से भी डरता था
उसेफूलों की खुशबू से भी रघबत थी
बोहत मुमकिन है, अब भी
शब की तारीकी से उस को खौफ आता हो
महकते फूल शायद बैस-ए-तस्कीन अब भी हों
सो इस इमकान पर
इक शाम उस के नाम करते हैं
चलो यह काम करते हैं! 

 11.
मेरी राहों के


मेरी राहों के
जो जुगनू हैं
वो तेरे हैं
तेरी आँखों के
जो अँधेरे हैं
वो मेरे है
छू सकता नहीं
कोई गम तुझको
क्यूंकि
तुझ पर दुआओं के जो
पहरे हैं
वो मेरे हैं
12.
अभी आग पूरी जली नहीं


अभी आग पूरी जली नहीं, अभी शोले ऊँचे उठे नहीं
अभी कहाँ का हूँ मैं गज़लसारा, मेरे खाल-ओ-खद अभी बने नहीं

अभी सीनाजोर नहीं हुआ, मेरे दिल के गम का मामला
कोई गहरा दर्द मिला नहीं, अभी ऐसे चरके लगे नहीं

इस सैल-ए-नूर की निश्बतों से मेरे दरीचा-ए-दिल में आ
मेरे ताकचिनो में है रौशनी, अभी ये चराग बुझे नहीं

न मेरे ख्याल की अंजुमन, न मेरे मिजाज़ की शायरी
सो कयाम करता मैं किस जगह, मेरे लोग मुझको मिले नहीं

मेरी शोहरतों के जो दाग हैं, मेरी मेहनतों के ये बाग़ हैं
ये माता-ओ-माल-ए-शिकस्तागान है, ज़कात में तो मिले नहीं

अभी बीच में हैं ये माजरा, सो रहेगा जारी ये सिलसिला
के बिसात-ए-हर्फ़-ओ-ख्याल पर अभी पूरे मोहरे सजे नहीं
13.
वोही लोग मुझसे बिछड़ गए


जो ख्याल थे, न कयास थे, वोही लोग मुझसे बिछड़ गए
जो मोहब्बतों की आस थे, वोही लोग मुझसे बिछड़ गए

जिन्हें मानता नहीं ये दिल, वोही लोग मेरे है हमसफ़र
मुझे हर तरह से जो रास थे, वोही लोग मुझसे बिछड़ गए

मुझे लम्हा भर की रफ़ाक़तों के सराब बोहत सतायेंगे
मेरी उम्र भर की प्यास थे, वोही लोग मुझसे बिछड़ गए

ये जो जाल सारे है आरजी, ये गुलाब सारे है कागजी
गुल-ए-आरजू की जो बास थे, वोही लोग मुझसे बिछड़ गए

जिन्हें कर सका न क़ुबूल मैं, वोही शरीक-ए-राह सफ़र हुए
जो मेरी तलब, मेरी आस थे, वोही लोग मुझसे बिछड़ गए

मेरी धडकनों के करीब थे, मेरी चाह थे, मेरा ख्वाब थे
वो जो रोज़-ओ-शब मेरे पास थे, वोही लोग मुझसे बिछड़ गए

14.

इतनी क्या बेजारी है

तर्क-ए-वफ़ा तुम क्यों करते हो ? इतनी क्या बेजारी है

हम ने कोई शिकयत की है ? बेशक जान हमारी है

 

तुम ने खुद को बाँट दिया है कैसे इतनी खानों में

सच्चों से भी दुआ सलाम है, झूठों से भी यारी है

 

कैसा हिज्र क़यामत का है, लहू में शोले नाचते हैं

आंखें बंद नहीं हो पाती, नींद हवस पे तारी है 

 

तुम ने हासिल कर ली होगी शायद अपनी मंजिल-ए-शौक़  

हम तो हमेशा के राही हैं, अपना सफ़र तो जारी है

 

पत्थर दिल बे ’हिस लोगों को यह नुक्ता कैसे समझाएं

इश्क में क्या बे’अंत नशा है, यह कैसी सरशारी है 

 

तुम ने कब देखी है तन्हाई और सन्नाटे की आग

इन शोलों में इस दोज़ख में हम ने उम्र गुजारी है ..

सरशारी = tremendous, Fullness, Dedicated

Tuesday, 27 November 2012

Hafeez Jalandhari

Hafeez Jalandhari 
(born 14 January 1900 - died 21 December 1982)
1. 
कोई चारा नहीं दुआ के सिवा

 कोई चारा नहीं दुआ के सिवा
कोई सुनता नहीं खुदा के सिवा

मुझसे क्या हो सका वफ़ा के सिवा
मुझको मिलता भी क्या सजा के सिवा

दिल सभी कुछ ज़बान पर लाया
इक फ़क़त अर्ज़-ए-मुद्दा के सिवा
[faqat=merely; arz-e-muddaa=expressing]

बरसर-ए-साहिल-ए-मुकाम यहाँ
कौन उभरा है नाखुदा के सिवा

दोस्तों के ये मुक्हाली साना तीर
कुछ नहीं मेरी ही खता के सिवा

ये "हफीज" आह आह पर आखिर
क्या कहे दोस्तों वाह वाह के सिवा
 

 2.
इंसा
भी कुछ शेर है,
बाकी भेड़ की आबादी है

शेरों
को आजादी है, आजादी के पाबंद रहे, जिसको चाहें चीरे-फाड़ें, खाए पियें आनंद रहे
सापों को आजादी है हर बसते घर में बसने की, उनके सर में जहर भी है और आदत भी है डसने कीशाही को आजादी है, आजादी से परवाज करे, नन्ही-मुन्नी चिड़ियों पर जब चाहे मश्के-नाज करें
पानी में आजादी है घडियालों और निहंगो को, जैसे चाहे पालें-पोसें अपनी तुंद उमंगो कोइंसा ने भी शोखी सीखी वहशत के इन रंगों से, शेरों, सापों, शाहीनो, घडियालों और निहंगो से
इंसा भी कुछ शेर है, बाकी भेड़ की आबादी है, भेडें सब पाबंद हैं लेकिन शेरों को आजादी हैशेर के आगे भेडें क्या हैं, इक मनभाता खाजा है, बाकी सारी दुनिया परजा, शेर अकेला राजा है
भेडें लातादाद हैं लेकिन सबकों जान के लाले हैं, उनको यह तालीम मिली है, भेडिए ताकत वाले हैंमांस भी खाएं, खाल भी नोचें, हरदम लागू जानो के, भेडें काटें दौरे-गुलामी बल पर गल्लाबानो के
भेडियों ही से गोया कायम अमन है इस आजादी का, भेडें जब तक शेर बन ले, नाम ली आजादी काइंसानों में सांप बहुत हैं, कातिल भी, जहरीले भी, उनसे बचना मुश्किल है, आजाद भी हैं, फुर्तीले भी
सरमाए का जिक्र करो, मजदूर की उनको फ़िक्र नही, मुख्तारी पर मरते हैं, मजबूर की उनको फ़िक्र नहीआज यह किसका मुंह ले आए, मुंह सरमायेदारों के, इनके मुंह में दांत नही, फल हैं खुनी तलवारों के
खा जाने का कौन सा गुर है को इन सबको याद नही, जब तक इनको आजादी है, कोई भी आजाद नहीउसकी आजादी की बातें सारी झूठी बातें हैं, मजदूरों को, मजबूरों को खा जाने की घातें हैं
जब तक चोरों, राहजनो का डर दुनिया पर ग़ालिब है, पहले मुझसे बात करे, जो आजादी का तालिब है

3.
क्यों हिज्र के शिकवे करता है, क्यों दर्द के रोने रोता है?

 क्यों हिज्र के शिकवे करता है, क्यों दर्द के रोने रोता है?
अब इश्क किया है तो सब्र भी कर, इसमें तो यही कुछ होता है

आगाज़-ए-मुसीबत होता है, अपने ही दिल की शरारत से
आँखों में फूल खिलाता है, तलवो में कांटें बोता है

अहबाब का शिकवा क्या कीजिये, खुद ज़ाहिर व बातें एक नहीं
लब ऊपर ऊपर हँसतें है, दिल अंदर अंदर रोता है

मल्लाहों को इलज़ाम न दो, तुम साहिल वाले क्या जानों
ये तूफान कौन उठता है, ये किश्ती कौन डुबोता है

क्या जाने क्या ये खोएगा, क्या जाने क्या ये पायेगा
मंदिर का पुजारी जागता है, मस्जिद का नमाजी सोता है

Meanings:
[hijr = separation; shikave = complaints; sabr = patience]
[aaGaaz = start; sharaarat = mischief]
[ahabaab = friends; zaahir = disclosed/out in the open]
[baatin = internal/of the mind]
[mallaah = boatsman/sailor; ilzaam = allegation]
[saahil = shore]

 

Saturday, 24 November 2012

Fani Badayuni, फ़ानी बदायूनी

Fani Badayuni
1879-1941
1.
कारवाँ गुज़रा किया हम रहगुज़र देखा किये

करवाँ गुज़रा किया हम रहगुज़र देखा किये
हर क़दम पर नक़्श-ए-पा-ए- राहबरदेखा किये

यास जब छाई उम्मीदें हाथ मल कर रह गईं
दिल की नब्ज़ें छुट गयीं और चारागर देखा किये

रुख़ मेरी जानिबनिगाह-ए-लुत्फ़ दुश्मन की तरफ़
यूँ उधर देखा किये गोया इधर देखा किये

दर्द-मंदाने-वफ़ा की हाये रे मजबूरियाँ
दर्दे-दिल देखा न जाता था मगर देखा किये

तू कहाँ थी ऐ अज़ल ! ऐ नामुरादों की मुराद !
मरने वाले राह तेरी उम्र भर देखा किये

शब्दार्थ:
रहगुज़र= पथ
नक़्श-ए-पा-ए- राहबर=नेतृत्व करने वाले के पद-चिह्न
चारागर=उपचारक
रुख़=चेहरा
जानिब=ओर्
निगाह-ए-लुत्फ़=आनंद-दायक दृष्टि
गोया=जैसे कि
अज़ल=मृत्यु
 

Faiz Ahmed Faiz

Faiz Ahmed Faiz
1911-1984
1.
मुझसे पहली मुहब्बत मेरी महबूब न मांग 

मैनें समझा कि तू तो दरख्शां है हयात 
तेरा गम है तो गमे-दहर का झगडा क्या है
तेरी सूरत से है आलम में बहारों को सबात
तेरी आँखों के सिवा दुनियां में रखा क्या हैं ?

तू जो मिल जाये तो तकदीर निगूं हो जाये
यूँ न था, मैने फकत चाहा था यूँ हो जाये

और भी दुःख है जमाने में मुहब्बत के सिवा
राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा
अनगिनत सदियों के तारीक बहीमाना तिलिस्म
रेशमो-अतलसो-कम ख्वाब में बुनवाये हुए
जा-ब-जा बिकते कूचा-ओ-बाज़ार में जिस्म
खाक में लिथड़े हुए खून में नहलाये हुए
       
लौट जाती है उधर को भी नज़र क्या कीजे
अब भी दिलकश है तेरा हुस्न, मगर क्या कीजे

और भी दुख है जमाने में मुहोब्बत के सिवा
राहतें और भी है वस्ल कि राहत के सिवा
मुझसे पहली से मुहब्बत मेरे महबूब न मांग
           
दरख्शां=रौशन, हयात=जीवन, गमे दहर=जमाने का दुःख, आलम=दुनियां, सबात=ठहराव, निगूं होना=बदल जाना, वस्ल की राहत=मिलन का आनंद, तारीक=अँधेरा, बहीमाना=पशुवत, रेशमो-अतलसो-कमख्वाब=रेशम, अलतस और मलमल, जा-ब-जा=जगह-जगह.
 2.
हम पर तुम्हारी चाह का इलज़ाम ही तो है 
हम पर तुम्हारी चाह का इलज़ाम ही तो है 
दुश्मन तो नहीं है, ये इकराम ही तो है 

करते हैं जिस पे तान, कोई जुर्म तो नहीं 
शौक़-ए-फुजूल-ओ-उल्फत-ए-नाकाम ही तो है 
[taa'n=satire] 

दिल मुद्दई के हर्फ़-ए-मलामत से शाद है
ऐ जान-ए-जां ये हर्फ़ तेरा नाम ही तो है
[harf-e-malaamat=word of criticism]

दिल ना-उम्मीद तो नहीं, नाकाम ही तो है
लम्बी है गम की शाम, मगर शाम ही तो है

दस्त-ए-फलक में, गर्दिश-ए-तक़दीर तो नहीं
दस्त-ए-फलक में, गर्दिश-ए-अय्याम ही तो है

आखिर तो एक रोज़ करेगी नज़र वफ़ा
वो य़ार -ए-खुश-खसाल सर-ए-बाम ही तो है
[Khush_Khasaal=virtuous]

भीगी है रात 'फैज़' ग़ज़ल इब्तिदा करो
वक़्त-ए-सरोद दर्द का हंगाम ही तो है
~फैज़ अहमद फैज़
Montogomery Jail
9th March, 1954

Thursday, 22 November 2012

अहसान बिन दानिश, Ehsan-bin-Danish

Ehsan Danish
  1914 -  1982
1.
न सियो होंट, न ख़्वाबों में सदा दो हम को


न सियो होंट, न ख़्वाबों में सदा दो हम को
मस्लेहत का ये तकाज़ा है, भुला दो हम को

हम हक़ीक़त हैं, तो तसलीम न करने का सबब
हां,अगर हर्फ़-ए-ग़लत हैं तो मिटा दो हम को

शोरिश-ए-इश्क़ में है हुस्न बराबर का शरीक
सोच कर ज़ुर्म-ए-मोहब्बत की सज़ा दो हम को

मक़सद-जीस्त ग़म-ए-इश्क़ है सहरा हो कि शहर
बैठ जाएंगे जहां चाहे बिठा दो हम को
2.
रसिश-ए-ग़म का शुक्रिया


रसिश-ए-ग़म का शुक्रिया, क्या तुझे आगाही नहीं
तेरे बग़ैर ज़िन्दगी दर्द है, ज़िन्दगी नहीं

दौर था एक गुज़र गया, नशा था एक उतर गया
अब वो मुक़ाम है जहाँ शिक्वा-ए-बेरुख़ी नहीं

तेरे सिवा करूँ पसंद क्या तेरी क़ायनात में
दोनों जहाँ की नेअमतें, क़ीमत-ए-बंदगी नहीं

लाख ज़माना ज़ुल्म ढाये, वक़्त न वो ख़ुदा दिखाये
जब मुझे हो यक़ीं कि तू हासिल-ए-ज़िन्दगी नहीं

दिल की शगुफ़्तगी के साथ राहत-ए-मयकदा गई
फ़ुर्सत-ए-मयकशि तो है, हसरत-ए-मयकशी गई

ज़ख़्म पे ज़ख़्म खाके जी, अपने लहू के घूँट पी
आह न कर, लबों को सी, इश्क़ है दिल्लगी नहीं

देख के ख़ुश्क-ओ-ज़र्द फूल, दिल है कुछ इस तरह मलूल
जैसे तेरी ख़िज़ाँ के बाद, दौर-ए-बहार ही नहीं
3.
यूँ न मिल मुझसे ख़फ़ा हो जैसे


यूँ न मिल मुझसे ख़फ़ा हो जैसे
साथ चल मौज-ए-सबा हो जैसे

लोग यूँ देख कर हँस देते हैं
तू मुझे भूल गया हो जैसे

इश्क़ को शिर्क की हद तक न बढ़ा
यूँ न मिल हमसे ख़ुदा हो जैसे

मौत भी आई तो इस नाज़ के साथ
मुझपे एहसान किया हो जैसे

ऐसे अंजान बने बैठे हो
तुम को कुछ भी न पता हो जैसे

हिचकियाँ रात को आती ही रहीं
तू ने फिर याद किया हो जैसे

ज़िन्दगी बीत रही है "दानिश"
एक बेजुर्म सज़ा हो जैसे
(मौज-ए-सबा: हवा का झोंका, शिर्क: ईश्वर को बुरा भला कहना)
4.
सिर्फ़ अश्क-ओ-तबस्सुम में उलझे रहे


सिर्फ़ अश्क-ओ-तबस्सुम में उलझे रहे
हमने देखा नहीं ज़िन्दगी की तरफ़

रात ढलते जब उनका ख़याल आ गया
टिक-टिकी बँध गई चाँदनी की तरफ़

कौन सा जुर्म है, क्या सितम हो गया
आँख अगर उठ गई, आप ही की तरफ़

जाने वो मुल्तफ़ित हों किधर बज़्म में
आँसूओं की तरफ़ या हँसी की तरफ़

Tuesday, 20 November 2012

Nazeer Baqri

नज़र बकरी 
1. 
अपनी आँखों के समुन्दर में उतर जाने दे

 अपनी आँखों के समुन्दर में उतर जाने दे
तेरा मुजरिम हूँ, मुझे डूब के मर जाने दे

ऐ नए दोस्त, मैं समझूंगा तुझे भी अपना
पहले माजी का, कोई ज़ख्म तो भर जाने दे

आग दुनिया की लगाई हुई बुझ जाएगी
कोई आंसू मेरे दामन पे बिखर जाने दे

ज़ख्म कितने तेरी चाहत से मिले हैं मुझको
सोचता हूँ की कहूँ तुझसे, मगर जाने दे
2.
 
धुंआ बनके फिजा में उड़ा दिया मुझको 

 धुंआ बनके फिजा में उड़ा दिया मुझको
मैं जल रहा था, किसी ने बुझा दिया मुझको

तरक्कियों का फ़साना सुना दिया मुझको
अभी हंसा भी न था और रुला दिया मुझको

मैं एक ज़र्रा, बुलंदी को छूने निकला था
हवा ने थाम के ज़मी पर गिरा दिया मुझको

सफ़ेद संग की चादर लपेट कर मुझ पर
फसिल-ए-शहर पे किसने सजा दिया मुझको

खड़ा हूँ आज भी, रोटी के चार हर्फ़ लिए
सवाल ये है कि किताबों ने क्या दिया मुझको

न जाने कौन सा जज्बा था खुद ही 'नजीर'
मेरी ही ज़ात का दुश्मन बना दिया मुझको

Friday, 16 November 2012

'खातिर' गजनवी, Khatir Gaznavi

'खातिर' गजनवी 
 1925 - 2008
1.
कैसी चली है अब के हवा, तेरे शहर में

कैसी चली है अब के हवा, तेरे शहर में
बन्दे भी हो गये हैं ख़ुदा, तेरे शहर में

क्या जाने क्या हुआ कि परेशान हो गयी
एक लहज़ा रुक गयी थी सबा तेरे शहर में

कुछ दुश्मनी का ढब है न अब दोस्ती के तौर
दोनों का एक रंग हुआ तेरे शहर में

शायद उन्हें पता था कि ख़ातिर है अजनबी
लोगों ने उसको लूट लिया तेरे शहर में
2.
जब उस ज़ुल्फ़ की बात चली


जब उस ज़ुल्फ़ की बात चली
ढलते ढलते रात ढली

उन आंखों ने लूट के भी
अपने ऊपर बात न ली

शम्अ का अन्जाम न पूछ
परवानों के साथ जली

अब भी वो दूर रहे
अब के भी बरसात चली

'ख़ातिर' ये है बाज़ी-ए-दिल
इसमें जीत से मात भली

Tuesday, 6 November 2012

नजीर अकबराबादी

नजीर अकबराबादी


1.बंजारानामा 
 
टुक हिर्सो-हवा को छोड़ मियां, मत देस-बिदेस फिरे मारा
क़ज़्ज़ाक अजल का लुटे है दिन-रात बजाकर नक़्क़ारा
क्या बधिया, भैंसा, बैल, शुतुर क्या गौनें पल्ला सर भारा
क्या गेहूं, चावल, मोठ, मटर, क्या आग, धुआं और अंगारा

सब ठाठ पड़ा रह जावेगा जब लाद चलेगा बंजारा

ग़र तू है लक्खी बंजारा और खेप भी तेरी भारी है
ऐ ग़ाफ़िल तुझसे भी चढ़ता इक और बड़ा ब्योपारी है
क्या शक्कर, मिसरी, क़ंद, गरी क्या सांभर मीठा-खारी है
क्या दाख़, मुनक़्क़ा, सोंठ, मिरच क्या केसर, लौंग, सुपारी है

सब ठाठ पड़ा रह जावेगा जब लाद चलेगा बंजारा

तू बधिया लादे बैल भरे जो पूरब पच्छिम जावेगा
या सूद बढ़ाकर लावेगा या टोटा घाटा पावेगा
क़ज़्ज़ाक़ अजल का रस्ते में जब भाला मार गिरावेगा
धन, दौलत, नाती, पोता, क्या इक कुनबा काम न आवेगा

सब ठाठ पड़ा रह जावेगा जब लाद चलेगा बंजारा

जब चलते-चलते रस्ते में ये गौन तेरी रह जावेगी
इक बधिया तेरी मिट्टी पर फिर घास न चरने पावेगी
ये खेप जो तूने लादी है सब हिस्सों में बंट जावेगी
धी, पूत, जमाई, बेटा क्या, बंजारिन पास न आवेगी

सब ठाठ पड़ा रह जावेगा जब लाद चलेगा बंजारा

ये खेप भरे जो जाता है, ये खेप मियां मत गिन अपनी
अब कोई घड़ी पल साअ़त में ये खेप बदन की है कफ़नी
क्या थाल कटोरी चांदी की क्या पीतल की डिबिया ढकनी
क्या बरतन सोने चांदी के क्या मिट्टी की हंडिया चपनी

सब ठाठ पड़ा रह जावेगा जब लाद चलेगा बंजारा

ये धूम-धड़क्का साथ लिये क्यों फिरता है जंगल-जंगल
इक तिनका साथ न जावेगा मौक़ूफ़ हुआ जब अन्न और जल
घर-बार अटारी चौपारी क्या ख़ासा, नैनसुख और मलमल
क्या चिलमन, परदे, फ़र्श नए क्या लाल पलंग और रंग-महल

सब ठाठ पड़ा रह जावेगा जब लाद चलेगा बंजारा

कुछ काम न आवेगा तेरे ये लालो-ज़मर्रुद सीमो-ज़र
जब पूंजी बाट में बिखरेगी हर आन बनेगी जान ऊपर
नौबत, नक़्क़ारे, बान, निशां, दौलत, हशमत, फ़ौजें, लशकर
क्या मसनद, तकिया, मुल्क मकां, क्या चौकी, कुर्सी, तख़्त, छतर

सब ठाठ पड़ा रह जावेगा जब लाद चलेगा बंजारा

क्यों जी पर बोझ उठाता है इन गौनों भारी-भारी के
जब मौत का डेरा आन पड़ा फिर दूने हैं ब्योपारी के
क्या साज़ जड़ाऊ, ज़र ज़ेवर क्या गोटे थान किनारी के
क्या घोड़े ज़ीन सुनहरी के, क्या हाथी लाल अंबारी के

सब ठाठ पड़ा रह जावेगा जब लाद चलेगा बंजारा

मग़रूर न हो तलवारों पर मत भूल भरोसे ढालों के
सब पत्ता तोड़ के भागेंगे मुंह देख अजल के भालों के
क्या डिब्बे मोती हीरों के क्या ढेर ख़जाने मालों के
क्या बुक़चे ताश, मुशज्जर के क्या तख़ते शाल दुशालों के

सब ठाठ पड़ा रह जावेगा जब लाद चलेगा बंजारा

क्या सख़्त मकां बनवाता है खंभ तेरे तन का है पोला
तू ऊंचे कोट उठाता है, वां गोर गढ़े ने मुंह खोला
क्या रैनी, ख़दक़, रंद बड़े, क्या बुर्ज, कंगूरा अनमोला
गढ़, कोट, रहकला, तोप, क़िला, क्या शीशा दारू और गोला

सब ठाठ पड़ा रह जावेगा जब लाद चलेगा बंजारा

हर आन नफ़े और टोटे में क्यों मरता फिरता है बन-बन
टुक ग़ाफ़िल दिल में सोच जरा है साथ लगा तेरे दुश्मन
क्या लौंडी, बांदी, दाई, दिदा क्या बन्दा, चेला नेक-चलन
क्या मस्जिद, मंदिर, ताल, कुआं क्या खेतीबाड़ी, फूल, चमन

सब ठाठ पड़ा रह जावेगा जब लाद चलेगा बंजारा

जब मर्ग फिराकर चाबुक को ये बैल बदन का हांकेगा
कोई ताज समेटेगा तेरा कोई गौन सिए और टांकेगा
हो ढेर अकेला जंगल में तू ख़ाक लहद की फांकेगा
उस जंगल में फिर आह 'नज़ीर' इक तिनका आन न झांकेगा

सब ठाठ पड़ा रह जावेगा जब लाद चलेगा बंजारा

meaning:
हिर्सो-हवा = लालच, क़ज़्ज़ाक = डाकू, अजल = मौत, शुतुर = ऊंट, क़ंद = खांड
2.
 दुनिया में नेकी और बदी
है दुनिया जिस का नाम मियाँ ये और तरह की बस्ती है
जो महँगों को तो महँगी है और सस्तों को ये सस्ती है
याँ हरदम झगड़े उठते हैं, हर आन अदालत कस्ती है
गर मस्त करे तो मस्ती है और पस्त करे तो पस्ती है
कुछ देर नही अंधेर नहीं, इंसाफ़ और अद्ल पर्स्ती है
इस हाथ करो उस हाथ मिले, याँ सौदा दस्त-बदस्ती है

जो और किसी का मान रखे, तो उसको भी अरमान मिले
जो पान खिलावे पान मिले, जो रोटी दे तो नान मिले
नुक़सान करे नुक़सान मिले, एहसान करे एहसान मिले
जो जैसा जिस के साथ करे, फिर वैसा उसको आन मिले
कुछ देर नही अंधेर नहीं, इंसाफ़ और अद्ल परस्ती है
इस हाथ करो उस हाथ मिले, याँ सौदा दस्त-बदस्ती है

जो और किसी की जाँ बख़्शे तो तो उसको भी हक़ जान रखे
जो और किसी की आन रखे तो, उसकी भी हक़ आन रखे
जो याँ कारहने वाला है, ये दिल में अपने जान रखे
ये चरत-फिरत का नक़शा है, इस नक़शे को पहचान रखे
कुछ देर नही अंधेर नहीं, इंसाफ़ और अद्ल परस्ती है
इस हाथ करो उस हाथ मिले, याँ सौदा दस्त-बद्स्ती है

जो पार उतारे औरों को, उसकी भी पार उतरनी है
जो ग़र्क़ करे फिर उसको भी, डुबकूं-डुबकूं करनी है
शम्शीर तीर बन्दूक़ सिना और नश्तर तीर नहरनी है
याँ जैसी जैसी करनी है, फिर वैसी वैसी भरनी है
कुछ देर नही अंधेर नहीं, इंसाफ़ और अद्ल परस्ती है
इस हाथ करो उस हाथ मिले, याँ सौदा दस्त-बद्स्ती है

जो ऊँचा ऊपर बोल करे तो उसका बोल भी बाला है
और दे पटके तो उसको भी, कोई और पटकने वाला है
बेज़ुल्म ख़ता जिस ज़ालिम ने मज़लूम ज़िबह करडाला है
उस ज़ालिम के भी लूहू का फिर बहता नद्दी नाला है
कुछ देर नही अंधेर नहीं, इंसाफ़ और अद्ल परस्ती है
इस हाथ करो उस हाथ मिले, याँ सौदा दस्त-बद्स्ती है

जो और किसी को नाहक़ में कोई झूटी बात लगाता है
और कोई ग़रीब और बेचारा नाहक़ में लुट जाता है
वो आप भी लूटा जाता है औए लाठी-पाठी खाता है
जो जैसा जैसा करता है, वो वौसा वैसा पाता है
कुछ देर नहीं अंधेर नहीं, इंसाफ़ और अद्ल परस्ती है
इस हाथ करो उस हाथ मिले, याँ सौदा दस्त-बदस्ती है

है खटका उसके हाथ लगा, जो और किसी को दे खटका
और ग़ैब से झटका खाता है, जो और किसी को दे झटका
चीरे के बीच में चीरा है, और टपके बीच जो है टपका
क्या कहिए और 'नज़ीर' आगे, है रोज़ तमाशा झटपट का
कुछ देर नहीं अंधेर नहीं, इंसाफ़ और अद्ल परस्ती है
इस हाथ करो उस हाथ मिले, याँ सौदा दस्त-बदस्ती है
3.
 
दूर से आये थे साक़ी 
 दूर से आये थे साक़ी सुनके मयख़ाने को हम ।
बस तरसते ही चले अफ़सोस पैमाने को हम ।।

मय भी है, मीना भी है, साग़र भी है साक़ी नहीं।
दिल में आता है लगा दें, आग मयख़ाने को हम।।

हमको फँसना था क़फ़ज़ में, क्या गिला सय्याद का।
बस तरसते ही रहे हैं, आब और दाने को हम।।

बाग में लगता नहीं सहरा में घबराता है दिल।
अब कहाँ ले जाके बेठाऐं ऐसे दीवाने को हम।।

ताक-ए-आबरू में सनम के क्या ख़ुदाई रह गई।
अब तो पूजेंगे उसी क़ाफ़िर के बुतख़ाने को हम।।

क्या हुई तक़्सीर हम से, तू बता दे ए ‘नज़ीर’
ताकि शादी मर्ग समझें, ऐसे मर जाने को हम।। 

4.
 बचपन

क्या दिन थे यारो वह भी थे जबकि भोले भाले ।
निकले थी दाई लेकर फिरते कभी ददा ले ।।
चोटी कोई रखा ले बद्धी कोई पिन्हा ले ।
हँसली गले में डाले मिन्नत कोई बढ़ा ले ।।
            मोटें हों या कि दुबले, गोरे हों या कि काले ।
            क्या ऐश लूटते हैं मासूम भोले भाले ।।1।।

दिल में किसी के हरगिज़ न शर्म ने हया है ।
आगा भी खुल रहा है,पीछा भी खुल रहा है ।।
पहनें फिरे तो क्या है, नंगे फिरे तो क्या है ।
याँ यूँ भी वाह वा है और वूँ भी वाह वा है ।।
            कुछ खाले इस तरह से कुछ उस तरह से खाले ।
            क्या ऐश लूटते हैं, मासूम भोले भाले ।।2।।

मर जावे कोई तो भी कुछ उनका ग़म न करना ।
ने जाने कुछ बिगड़ना, ने जाने कुछ संवरना ।।
उनकी बला से घर में हो क़ैद या कि घिरना ।
जिस बात पर यह मचले फिर वो ही कर गुज़रना ।।
            माँ ओढ़नी को, बाबा पगड़ी को बेच डाले ।
            क्या ऐश लूटते हैं, मासूम भोले भाले ।।3।।

कोई चीज़ देवे नित हाथ ओटते हैं ।
गुड़, बेर, मूली, गाजर, ले मुँह में घोटते हैं ।।
बाबा की मूँछ माँ की चोटी खसोटते हैं ।
गर्दों में अट रहे हैं, ख़ाकों में लोटते हैं ।।
            कुछ मिल गया सो पी लें, कुछ बन गया सो खालें ।
            क्या ऐश लूटते हैं मासूम भोले भाले ।।4।।

जो उनको दो सो खालें, फीका हो या सलोना ।
हैं बादशाह से बेहतर जब मिल गया खिलौना ।।
जिस जा पे नींद आई फिर वां ही उनको सोना ।
परवा न कुछ पलंग की ने चाहिए बिछौना ।।
            भोंपू कोई बजा ले, फिरकी कोई फिरा ले ।
            क्या ऐश लूटते हैं, मासूम भोले भाले ।।5।।

ये बालेपन का यारो, आलम अजब बना है ।
यह उम्र वो है इसमें जो है सो बादशाह है।।
और सच अगर ये पूछो तो बादशाह भी क्या है।
अब तो ‘‘नज़ीर’’ मेरी सबको यही दुआ है ।
            जीते रहें सभी के आसो-मुराद वाले ।
            क्या ऐश लूटते हैं, मासूम भोले भाले ।।6।।

Thursday, 1 November 2012

Altaf Hussain Hali, अल्ताफ हुसैन हाली

Altaf Hussain Hali
(1837–1914)
अल्ताफ हुसैन हाली का नाम उर्दू साहित्य में बेहद सम्मान के साथ लिया जाता है. आपका जन्म उन्नीसवी शताब्दी के मध्य में हरियाणा के पानीपत में हुआ था. घरेलु हालात ऐसे थे कि आप औपचारिक शिक्षा भी ग्रहण न कर सके लेकिन इन बातों से क्या होता है. आप इनकी रचनाओं में इनकी प्रतिभा व मेहनत का असर देख सकते है. आप बाद में अपने ज्ञान को विस्तार देने व समाज सुधार के इरादे से दिल्ली आ गए थे. उन्होंने अपने दम ख़म पर उर्दू, फारसी व अरबी भाषा में इस तरह की पकड़ बनाई कि इन्हें उर्दू शिक्षण की लाहोर के कोलेज में ज़िम्मेदारी दी गयी. आप सर सैयद अहमद खान साब के प्रिय मित्र व अनुयायी थे. आपने उर्दू में प्रचलित परम्परा से हट कर ग़ज़ल, नज़्म, रुबाईया व मर्सिया लिखे है. आपने मिर्ज़ा ग़ालिब की जीवनी सहित कई किताबे लिखी है.
1.
 हक वफ़ा का जो हम जताने लगे

हक वफ़ा का जो हम जताने लगे
आप कुछ कह के मुस्कुराने लगे

हम को जीना पड़ेगा फुरक़त में
वो अगर हिम्मत आज़माने लगे

डर है मेरी जुबान न खुल जाये
अब वो बातें बहुत बनाने लगे

जान बचती नज़र नहीं आती
गैर उल्फत बहुत जताने लगे

तुम को करना पड़ेगा उज्र-ए-जफा
हम अगर दर्द-ए-दिल सुनाने लगे

बहुत मुश्किल है शेवा-ए-तस्लीम
हम भी आखिर को जी चुराने लगे

वक़्त-ए-रुखसत था सख्त “हाली” पर
हम भी बैठे थे जब वो जाने लगे  

Jaun Elia, जॉन एलिया

Jaun Elia
 December 14, 1931 - November 8, 2002
1.
 हालत-ए-हाल के सबब, हालत-ए-हाल ही गई

हालत-ए-हाल के सबब, हालत-ए-हाल ही गई
शौक़ में कुछ नहीं गया, शौक़ की ज़िंदगी गई

एक ही हादिसा तो है और वो ये के आज तक
बात नहीं कही गयी, बात नहीं सुनी गई

बाद भी तेरे जान-ए-जान दिल में रहा अजब सामान
याद रही तेरी यहाँ, फिर तेरी याद भी गई

उसके बदन को दी नमूद हमने सुखन में और फिर
उसके बदन के वास्ते एक काबा भी सी गई

उसकी उम्मीद-ए-नाज़ का हमसे ये मान था के आप
उम्र गुज़ार दीजिये, उम्र गुज़ार दी गई

उसके विसाल के लिए, अपने कमाल के लिए
हालत-ए-दिल की थी खराब, और खराब की गई

तेरा फ़िराक जान-ए-जान ऐश था क्या मेरे लिए
यानी तेरे फ़िराक में खूब शराब पी गई

उसकी गली से उठ के मैं आन पडा था अपने घर
एक गली की बात थी और गली गली गई

2.
गाहे गाहे बस अब यही हो क्या

गाहे गाहे बस अब यही हो क्या
तुमसे मिल कर बहुत खुशी हो क्या

मिल रही हो बड़े तपाक के साथ
मुझको यक्सर भुला चुकी हो क्या

याद हैं अब भी अपने ख्वाब तुम्हे
मुझसे मिलकर उदास भी हो क्या

बस मुझे यूँही एक ख्याल आया
सोचती हो तो सोचती हो क्या

अब मेरी कोई जिंदगी ही नहीं
अब भी तुम मेरी जिंदगी हो क्या

क्या कहा इश्क जाविदानी है
आखरी बार मिल रही हो क्या

हाँ फज़ा यहां की सोई सोई सी है
तो बहुत तेज रौशनी हो क्या

मेरे सब तंज बेअसर ही रहे
तुम बहुत दूर जा चुकी हो क्या

दिल में अब सोजे इंतज़ार नहीं
शमे उम्मीद बुझ गयी हो क्या
 

3.
अजब इक शोर सा बरपा है कहीं

 अजब इक शोर सा बरपा है कहीं
कोई खामोश हो गया है कहीं

है कुछ ऐसा के जैसे ये सब कुछ
अब से पहले भी हो चुका है कहीं

जो यहाँ से कहीं न जाता था
वो यहाँ से चला गया है कहीं

तुझ को क्या हो गया, के चीजों को
कहीं रखता है, ढूंढता है कहीं

तू मुझे ढूंढ़, मैं तुझे ढुंढू
कोई हम में से रह गया है कहीं

इस कमरे से हो के कोई विदा
इस कमरे में छुप गया है कहीं
4.
 
ख़ामोशी कह रही है कान में क्या
 ख़ामोशी कह रही है कान में क्या
आ रहा है मेरे गुमान में क्या

अब मुझे कोई टोकता भी नहीं
यही होता है खानदान में क्या

बोलते क्यों नहीं मेरे हक़ में
आबले पड़ गये ज़बान में क्या

मेरी हर बात बे-असर ही रही
नुक़्स है कुछ मेरे बयान में क्या

वो मिले तो ये पूछना है मुझे
अब भी हूँ मैं तेरी अमान में क्या

शाम ही से दुकान-ए-दीद है बंद
नहीं नुकसान तक दुकान में क्या

यूं जो तकता है आसमान को तू
कोई रहता है आसमान में क्या

ये मुझे चैन क्यूँ नहीं पड़ता
इक ही शख़्स था जहान में क्या

 5.
 शौक का रंग बुझ गया , याद के ज़ख्म भर गए
 शौक का रंग बुझ गया , याद के ज़ख्म भर गए
क्या मेरी फसल हो चुकी, क्या मेरे दिन गुज़र गए?

हम भी हिजाब दर हिजाब छुप न सके, मगर रहे
वोह भी हुजूम दर हुजूम रह न सके, मगर गए

रहगुज़र-ए-ख्याल में दोष बा दोष थे जो लोग
वक्त की गर्द ओ बाद में जाने कहाँ बिखर गए

शाम है कितनी बे तपाक, शहर है कितना सहम नाक
हम नफ़सो कहाँ तो तुम, जाने ये सब किधर गए

आज की रात है अजीब, कोई नहीं मेरे करीब
आज सब अपने घर रहे, आज सब अपने घर गए

हिफ्ज़-ए- हयात का ख्याल हम को बहुत बुरा लगा
पास बा हुजूम-ए-मारका, जान के भी सिपर गए

मैं तो सापों के दरमियान, कब से पड़ा हूँ निम-जान
मेरे तमाम जान-निसार मेरे लिए तो मर गए

रौनक-ए-बज़्म-ए-ज़िन्दगी, तुरफा हैं तेरे लोग भी
एक तो कभी न आये थे, आये तो रूठ कर गए

खुश नफास-ए-बे-नवा, बे-खबरां-ए-खुश अदा
तीरह-नसीब था मगर शहर में नाम कर गए

आप में 'जॉन अलिया' सोचिये अब धरा है क्या
आप भी अब सिधारिये, आप के चारागर गए

चारागर=चिकित्सक
6.
 
जॉन ! गुज़ाश्त-ए-वक्त की हालत-ए-हाल पर सलाम

 जॉन ! गुज़ाश्त-ए-वक्त की हालत-ए-हाल पर सलाम
उस के फ़िराक को दुआ, उसके विसाल पर सलाम

तेरा सितम भी था करम, तेरा करम भी था सितम
बंदगी तेरी तेग को, और तेरी ढाल पर सलाम

सूद-ओ-जयां के फर्क का अब नहीं हम से वास्ता
सुबह को अर्ज़-ए-कोर्निश, शाम-ए-मलाल पर सलाम

अब तो नहीं है लज्ज़त-ए-मुमकिन-ए-शौक भी नसीब
रोज़-ओ-शब ज़माना-ए-शौक महाल पर सलाम

हिज्र-ए-सवाल के है दिन, हिज्र-ए-जवाब के हैं दिन
उस के जवाब पर सलाम, अपने सवाल पर सलाम


जाने वोह रंग-ए-मस्ती-ए-ख्वाब-ओ-ख्याल क्या हुई?
इशरत-ए-ख्वाब की सना, ऐश-ए-ख्याल पर सलाम

अपना कमाल था अजब, अपना ज़वाल था अजब
अपने कमाल पर दारूद, अपने ज़वाल पर सलाम 

7.
तमन्ना कई थे, आज दिल में उनके लिए
तमन्ना कई थे, आज दिल में उनके लिए
लेकिन वो आज न आये मुझे मिलने के लिए

काम करने का जोश न रहा
उनके बिना कोई होश न रहा

कैसे समझाऊ उन्हें की वोह मेरी ज़िन्दगी है
मेरी ज़िन्दगी को कैसे समझाऊ के मोहब्बत मेरी बंदगी है

लेकिन आज मैं काम ज़रूर करूँगा
उनके बिना मैं नहीं मरूँगा

कमबख्त यह दिल है कि मानता नहीं
यह क्या मजबूरी हैं उनके बिना काम बनता नहीं

काश उनको भी मेरी याद सताये
यह मोहब्बत का रोग उन्हें जलाये


 

Wednesday, 31 October 2012

Bekal Utsahi, बेकल उत्साही

Bekal Utsahi
1. 
जब से हम तबाह हो गये
 जब से हम तबाह हो गये
तुम जहाँपनाह हो गये

हुस्न पर निखार आ गया
आईने सियाह हो गये

आँधियों को कुछ पता नहीं
हम भी गर्द-ए-राह हो गये

दुश्मनों को चिट्ठियाँ लिक्खो
दोस्त ख़ैर-ख़्वाह हो गये
2.
 
मौला ख़ैर करे
 भीतर बसने वाला ख़ुद बाहर की सैर करे, मौला ख़ैर करे
इक सूरत की चाह में फिर काबे को दैर करे, मौला ख़ैर करे

इश्क़विश्क़ ये चाहतवाहत मनका बहलावा फिर मनभी अपना क्या
यार ये कैसा रिश्ता जो अपनों को ग़ैर करे, मौला ख़ैर करे

रेत का तोदा आंधी की फ़ौजों पर तीर चलाए, टहनी पेड़ चबाए
छोटी मछली दरिया में घड़ियाल से बैर करे, मौला ख़ैर करे

सूरज काफ़िर हर मूरत पर जान छिड़कता है, बिन पांव थकता है
मन का मुसलमाँ अब काबे की जानिब पैर करे, मौला खैर करे

फ़िक्र की चाक पे माटी की तू शक्ल बदलता है, या ख़ुद ही ढलता है
'बेकल' बे पर लफ़्ज़ों को तख़यील का तैर करे, मौला ख़ैर करे
3.
 
वो तो मुद्दत से जानता है मुझे
 वो तो मुद्दत से जानता है मुझे
फिर भी हर इक से पूछता है मुझे

रात तनहाइयों के आंगन में
चांद तारों से झाँकता है मुझे

सुब्‌ह अख़बार की हथेली पर
सुर्ख़ियों मे बिखेरता है मुझे

होने देता नही उदास कभी
क्या कहूँ कितना चाहता है मुझे

मैं हूँ 'बेकल' मगर सुकून से हूँ
उसका ग़म भी सँवारता है मुझे