Sunday, 31 March 2013

आँखों के समंदर में

तुम्हारी
आँखों के
समंदर में,
सनम !
जिस पल उतरे थे

तब से आज तक
हमें वहाँ
क्या-कुछ
नहीं मिला

कई अनमोल
छिपे खजाने मिले

इस दुनिया से
जुदा
एक नई
दुनिया मिली

और
वो सब मिला
जो रंगीन ख्वाबो में देखा था,
मुहब्बत की किताबों में पढ़ा था,
खुशनुमा तन्हाइयों में सोचा था

और मैंने
वो सब भी पाया
जो कभी दुआओं में माँगा था
-आराधना सिंह

Saturday, 30 March 2013

ग़मगीन पलों में

बिछड़ते हुए
ग़मगीन पलों में
उसने अपनी
उदास आँखों से
विदा लेते हुए
ये कहा था कि

कभी, जब
तुम्हें मेरी
बहुत याद आए
और
दिल बोझिल सा
हो जाए
तो थोड़ा
रो भी लेना
कुछ छिपा-जमा दर्द
आँसुओं के साथ
बह जाएगा,
जी हल्का हो जाएगा,
तुम्हें थोड़ा
सुकून मिल जाएगा

उसे इस तरह
देख कर ......
मुझसे
न पूछा जा सका
कि जब तुमको
मेरी याद आएगी
तब तुम क्या करोगे?
-आराधना सिंह

जो साजिशों में

जो
साजिशों में
शामिल थे

बेगुनाहों में
शुमार हो
रिहा हो गए

और
मुझ बेकसूर को
कैद हो गई

क्योंकि
मेरे पास
साजिशें रचने का
अनुभव नहीं था

इसलिए
अपने बचाव में
मेरे पास
कोई सबूत भी
नहीं था
-आराधना सिंह

मेरे दोस्त, मेरे महबूब

मेरे दोस्त,
मेरे महबूब
तुमसे जुदा होने के बाद
बदलती तारीखों के साथ
कितने ही
महीने, बरस, केलेन्डर
बदल गए

कितने ही मौसम
आए और चले गए
दुनिया में
अनगिनत उलट बासी
फेर बदल हुए

पूरी सृष्टि में सबकुछ
बदला-बदला सा है
लोगो के बदलते
मिजाज़ जैसा

लेकिन दोस्त
तुम
बिल्कुल नहीं बदले
बरसो बाद भी
वही पुराना अंदाज़,
वही चाहत,
उसी तरह से
बड़ी शिद्दत से मिलना
और हँसते हुए कहना
साहिल हूँ मैं तुम्हारा
कहाँ जाओगे ?
लौट कर
मेरे पास ही आओगे
-आराधना सिंह

मिलन के वक़्त

हम ने
मिलन के वक़्त
जो कुछ सोचा
देह से जुदा सोचा

इसलिए
हम कभी
एक-दूसरे से
जुदा नहीं हो सके

चाहतों में
हमारा
लहज़ा
कभी तल्ख़
नहीं हुआ

आत्मिक
मिलन की
इस यात्रा में ..
बना रहा
सदैव एक-दूसरे
का साथ

और हमने
निभा दी
ईश्वर की
बनायी हुई
प्रेम की सभी रस्में
-आराधना सिंह

Friday, 29 March 2013

चाहतों में

चाहतों में
बिछड़ने पर भी
हमारे पास
रह जाती है
कुछ अमिट
निशानियाँ

जो सदैव
महफूज़ रहती है
हमारे साथ
हमसाया बन कर

देती है भरोसा
किसी के होने का
तब भी
जबकि हमारा
मिलना न हो पाता हो
अपने बिछड़े
महबूब से
बरसो-बरस तक
और कई बार तो
मरते दम तक

फिर भी निशानियाँ
बनी रहती है
हमारे साथ :
धरोहर बन कर
विरासत बन कर
इतिहास बन कर

उनके होने से
महकने लगती है
समस्त फिजाएँ
अनगिनत फूलों की
सुवासित गंध से

जीवंत हो उठती है
अतीत की
कई तस्वीरें
निगाहों के सामने

और दिल
फिर से ढूंढ़ ही लेता है
जीने के बहाने
इन्हीं
निशानिओं के बहाने
-आराधना सिंह

मरियल आदमी

मरियल आदमी

मेरे देश में
कुछ चर्चित लोग ....
जो बातें बहुत करते है
कीचड़ उछालने में,
हो-हल्ला-हुडदंग मचाने में,
आधारहीन मुद्दा उठाने में,
मरियल आदमी को बेवकूफ बनाने में
जो सबसे आगे रहते है

जब भी
इनके बोलने का,
मुखर होने का
वक़्त आता है
तो ये सब के सब
चर्चित लोग
मौन व्रत धारण कर
कहीं अज्ञातवास को चले जाते है
और माहौल शांत होने पर
अपने रहस्यमय अज्ञातवास को
एक सार्थक तपस्या बताते हुए
समझौते की दूकान जमाने
वापस पुराने ठिकानो पर लौट आते है

और मेरे देश का
मरियल आदमी
बेचारा अकेला ही
पुलिस की,
वकील की,
बाबुओं की,
पटवारी और तहसीलदार
जैसे भ्रष्ट चाकरों की
गालियाँ सुनते हुए
लुटेरी व्यवस्था को कोसते हुए
अपनी फटी जेब
खाली करता जाता है

ये मरियल आदमी की
और मेरे देश की
त्रासदी है कि
स्वार्थी लीडरो के कारण
यहाँ कभी कोई सार्थक क्रांति नहीं हुई

ये जितने भी है
लाल, गेरुए, हरे और रंग-बिरंगे झण्डे वाले
बड़े पहुँचे खिलाड़ी है
छुपे-रुस्तम और घाघ आदमी है

मेरे देश के मरियल आदमी को
इन सबने बेचारा-मजबूर बना रखा है
सरकार की मेहरबानी से
मरियल आदमी
अपना पेट भरने के
जुगाड़ में ही व्यस्त है
इस मरियल को
इस जुगाड़ की कवायद से
फुर्सत मिले
तो बेचारा! वो आगे की सोचे

लेकिन अब लगता है ...
अनुभव कहता है कि
इस मरियल आदमी के
भीतर जो चिंगारी है
वो किसी दिन शोला बन के भड़केगी
और मेरे देश में भी
इस मरियल आदमी की अगुवाई में
एक जबर्दस्त क्रांति ज़रूर हो कर रहेगी
-आराधना सिंह

दिल का....

मामला
दिल का था
इसलिए
सब्र करके
रह गए

दिमागी
हिसाब-किताब
में तो
हम भी
बेहद
होशियार थे
-आराधना सिंह

Thursday, 28 March 2013

तुमसे बिछड़ते ही

तुमसे बिछड़ते ही
मुझे यूँ लगा तो था
कि तुम
मुझसे दूर
हो कर भी
कितनी दूर जाओगे ?

तुम इस कदर
मेरी हर साँसों में
धडकनों में
बस जाओगे
मैंने ये तो
सोचा ही नहीं था

हम बिछड़े है
उस दिन से
आज तक
हर सुबह
तुम्हारा
सलाम लेकर आई
और शाम होते ही
एक सदा
तुम्हारी दुआओं की
तस्कीन करने आई

तुम बिछड़े क्या दोस्त?
बिछड़ते ही
बहुत करीब हो गए
मेरे भीतर-बाहर
सब जगह हो गए
-आराधना सिंह

जिस पल

जिस पल
तुम
नज़र के
रास्तों से
सीधे
दिल में उतरे

वक़्त को तो
वहीँ
ठहर जाना
चाहिए था

और
सूरज,
सुबह की बयार,
गीत सुनाते पंछियों को
यानि कि

इस
सारे जहां को,
पूरी कायनात को
हमारी
इस दास्ताँ से
रूबरु होना चाहिए था
-आराधना सिंह