Ahmad Nadeem Qasmi
Born November 20, 1916 – Died July 10, 2006
1.
क्या भला मुझ को परखने का नतीजा निकला
क्या भला मुझ को परखने का नतीजा निकला
ज़ख़्म-ए-दिल आप की नज़रों से भी गहरा निकला
तोड़ कर देख लिया आईना-ए-दिल तूने
तेरी सूरत के सिवा और बता क्या निकला
जब कभी तुझको पुकारा मेरी तनहाई ने
बू उड़ी धूप से तसवीर से साया निकला
तिश्नगी जम गई पत्थर की तरह होंठों पर
डूब कर भी तेरे दरिया से मैं प्यासा निकला
(तिश्नगी: प्यास)
ज़ख़्म-ए-दिल आप की नज़रों से भी गहरा निकला
तोड़ कर देख लिया आईना-ए-दिल तूने
तेरी सूरत के सिवा और बता क्या निकला
जब कभी तुझको पुकारा मेरी तनहाई ने
बू उड़ी धूप से तसवीर से साया निकला
तिश्नगी जम गई पत्थर की तरह होंठों पर
डूब कर भी तेरे दरिया से मैं प्यासा निकला
(तिश्नगी: प्यास)
2.
जब तेरा हुक्म मिला तर्क मुहब्बत कर दी
दिल मगर उस पे वो धडका कि क़यामत कर दी
तुझसे किस तरह मैं इज़हार-ए-तमन्ना करता
लफ़्ज़ सूझा तो मआनी ने बग़ावत कर दी
मैं तो समझा था कि लौट आते हैं जाने वाले
तूने जाकर तो जुदाई मेरी कि़स्मत कर दी
मुझको दुश्मन के वादों पे भी प्यार आता है
तेरी उल्फ़त ने मुहब्बत मेरी आदत कर दी
पूछ बैठा हूँ मैं तुझसे तेरे कूचे का पता
तेरी हालत ने कैसी तेरी सूरत कर दी
दिल मगर उस पे वो धडका कि क़यामत कर दी
तुझसे किस तरह मैं इज़हार-ए-तमन्ना करता
लफ़्ज़ सूझा तो मआनी ने बग़ावत कर दी
मैं तो समझा था कि लौट आते हैं जाने वाले
तूने जाकर तो जुदाई मेरी कि़स्मत कर दी
मुझको दुश्मन के वादों पे भी प्यार आता है
तेरी उल्फ़त ने मुहब्बत मेरी आदत कर दी
पूछ बैठा हूँ मैं तुझसे तेरे कूचे का पता
तेरी हालत ने कैसी तेरी सूरत कर दी
3.
मरूँ तो मैं किसी चेहरे में रंग भर जाऊँ
मरूँ तो मैं किसी चेहरे में रंग भर जाऊँ
नदीम! काश यही एक काम कर जाऊँ
ये दश्त-ए-तर्क-ए-मुहब्बत ये तेरे क़ुर्ब की प्यास
जो इज़ाँ हो तो तेरी याद से गुज़र जाऊँ
मेरा वजूद मेरी रूह को पुकारता है
तेरी तरफ़ भी चलूं तो ठहर ठहर जाऊँ
तेरे जमाल का परतो है सब हसीनों पर
कहाँ कहाँ तुझे ढूंढूँ किधर किधर जाऊँ
मैं ज़िन्दा था कि तेरा इन्तज़ार ख़त्म न हो
जो तू मिला है तो अब सोचता हूँ मर जाऊँ
ये सोचता हूं कि मैं बुत-परस्त क्यूँ न हुआ
तुझे क़रीब जो पाऊँ तो ख़ुद से डर जाऊँ
किसी चमन में बस इस ख़ौफ़ से गुज़र न हुआ
किसी कली पे न भूले से पाँव धर जाऊँ
ये जी में आती है तख़्लीक़-ए-फ़न के लम्हों में
कि ख़ून बन के रग-ए-संग में उतर जाऊँ
नदीम! काश यही एक काम कर जाऊँ
ये दश्त-ए-तर्क-ए-मुहब्बत ये तेरे क़ुर्ब की प्यास
जो इज़ाँ हो तो तेरी याद से गुज़र जाऊँ
मेरा वजूद मेरी रूह को पुकारता है
तेरी तरफ़ भी चलूं तो ठहर ठहर जाऊँ
तेरे जमाल का परतो है सब हसीनों पर
कहाँ कहाँ तुझे ढूंढूँ किधर किधर जाऊँ
मैं ज़िन्दा था कि तेरा इन्तज़ार ख़त्म न हो
जो तू मिला है तो अब सोचता हूँ मर जाऊँ
ये सोचता हूं कि मैं बुत-परस्त क्यूँ न हुआ
तुझे क़रीब जो पाऊँ तो ख़ुद से डर जाऊँ
किसी चमन में बस इस ख़ौफ़ से गुज़र न हुआ
किसी कली पे न भूले से पाँव धर जाऊँ
ये जी में आती है तख़्लीक़-ए-फ़न के लम्हों में
कि ख़ून बन के रग-ए-संग में उतर जाऊँ
4.
रेत से बुत न बना मेरे अच्छे फ़नकार
रेत से बुत न बना मेरे अच्छे फ़नकार
एक लम्हे को ठहर मैं तुझे पत्थर ला दूँ
मैं तेरे सामने अम्बार लगा दूँ लेकिन
कौन से रंग का पत्थर तेरे काम आएगा
सुर्ख़ पत्थर जिसे दिल कहती है बेदिल दुनिया
या वो पत्थराई हुई आँख का नीला पत्थर
जिस में सदियों के तहय्युर के पड़े हों डोरे
क्या तुझे रूह के पत्थर की जरूरत होगी
जिस पे हक़ बात भी पत्थर की तरह गिरती है
इक वो पत्थर है जिसे कहते हैं तहज़ीब-ए-सफ़ेद
उस के मर-मर में सियाह ख़ून झलक जाता है
इक इन्साफ़ का पत्थर भी होता है मगर
हाथ में तेशा-ए-ज़र हो तो वो हाथ आता है
जितने मयार हैं इस दौर के सब पत्थर हैं
शेर भी रक्स भी तस्वीर-ओ-गिना भी पत्थर
मेरे इलहाम तेरा ज़हन-ए-रसा भी पत्थर
इस ज़माने में हर फ़न का निशां पत्थर है
हाथ पत्थर हैं तेरे मेरी ज़ुबां पत्थर है
रेत से बुत न बना ऐ मेरे अच्छे फ़नकार
5.
किस को क़ातिल मैं कहूं किस को मसीहा समझूं
किस को क़ातिल मैं कहूं किस को मसीहा समझूं
सब यहां दोस्त ही बैठे हैं किसे क्या समझूं
वो भी क्या दिन थे की हर वहम यकीं होता था
अब हक़ीक़त नज़र आए तो उसे क्या समझूं
दिल जो टूटा तो कई हाथ दुआ को उठे
ऐसे माहौल में अब किस को पराया समझूं
ज़ुल्म ये है कि है यक्ता तेरी बेगानारवी
लुत्फ़ ये है कि मैं अब तक तुझे अपना समझूं
6.
तुझे खोकर भी तुझे पाऊं जहाँ तक देखूँ
तुझे खोकर भी तुझे पाऊं जहाँ तक देखूँ
हुस्न-ए-यज़्दां से तुझे हुस्न-ए-बुतां तक देखूं
तूने यूं देखा है जैसे कभी देखा ही न था
मैं तो दिल में तेरे क़दमों के निशां तक देखूँ
सिर्फ़ इस शौक़ में पूछी हैं हज़ारों बातें
मै तेरा हुस्न तेरे हुस्न-ए-बयां तक देखूँ
वक़्त ने ज़ेहन में धुंधला दिये तेरे खद्द-ओ-खाल
यूं तो मैं तूटते तारों का धुआं तक देखूँ
दिल गया था तो ये आँखें भी कोई ले जाता
मैं फ़क़त एक ही तस्वीर कहाँ तक देखूँ
एक हक़ीक़त सही फ़िरदौस में हूरों का वजूद
हुस्न-ए-इन्सां से निपट लूं तो वहाँ तक देखूँ
शब्दार्थ: हुस्न-ए-यज़्दां = भगवान की सुन्दरता, हुस्न-ए-बुतां=बुत/मूर्ति की सुन्दरता, खद्द-ओ-खाल=यादें / सूरत, फ़क़त= सिर्फ़
7.
अब तक तो नूर-ओ-निक़हत-ओ-रंग-ओ-सदा कहूँ
अब तक तो नूर-ओ-निक़हत-ओ-रंग-ओ-सदा कहूँ,
मैं तुझको छू सकूँ तो ख़ुदा जाने क्या कहूँ
लफ़्ज़ों से उन को प्यार है मफ़हूम् से मुझे,
वो गुल कहें जिसे मैं तेरा नक्श-ए-पा कहूँ
अब जुस्तजू है तेरी जफ़ा के जवाज़ की,
जी चाहता है तुझ को वफ़ा आशना कहूँ
सिर्फ़ इस के लिये कि इश्क़ इसी का ज़हूर है,
मैं तेरे हुस्न को भी सबूत-ए-वफ़ा कहूँ
तू चल दिया तो कितने हक़ाइक़ बदल गये,
नज़्म-ए-सहर को मरक़द-ए-शब का दिया कहूँ
क्या जब्र है कि बुत को भी कहना पड़े ख़ुदा,
वो है ख़ुदा तो मेरे ख़ुदा तुझको क्या कहूँ
जब मेरे मुँह में मेरी ज़ुबाँ है तो क्यूँ न मैं
जो कुछ कहूँ यक़ीं से कहूँ बर्मला कहूँ
क्या जाने किस सफ़र पे रवाँ हूँ अज़ल से मैं,
हर इंतिहा को एक नयी इब्तिदा कहूँ
हो क्यूँ न मुझ को अपने मज़ाक़-ए-सुख़न पे नाज़,
ग़ालिब को कायनात-ए-सुख़न का ख़ुदा कहूँ
8.
कौन कहता है कि मौत आयी तो मर जाऊँगा
कौन कहता है कि मौत आयी तो मर जाऊँगा
मैं तो दरिया हूं, समन्दर में उतर जाऊँगा
तेरा दर छोड़ के मैं और किधर जाऊँगा
घर में घिर जाऊँगा, सहरा में बिखर जाऊँगा
तेरे पहलू से जो उठूँगा तो मुश्किल ये है
सिर्फ़ इक शख्स को पाऊंगा, जिधर जाऊँगा
अब तेरे शहर में आऊँगा मुसाफ़िर की तरह
साया-ए-अब्र की मानिंद गुज़र जाऊँगा
तेरा पैमान-ए-वफ़ा राह की दीवार बना
वरना सोचा था कि जब चाहूँगा, मर जाऊँगा
चारासाज़ों से अलग है मेरा मेयार कि मैं
ज़ख्म खाऊँगा तो कुछ और संवर जाऊँगा
अब तो खुर्शीद को डूबे हुए सदियां गुज़रीं
अब उसे ढ़ूंढने मैं ता-बा-सहर जाऊँगा
ज़िन्दगी शमा की मानिंद जलाता हूं ‘नदीम’
बुझ तो जाऊँगा मगर, सुबह तो कर जाऊँगा
9.
मुझे कल मेरा एक साथी मिला
मुझे कल मेरा एक साथी मिला
जिस ने ये राज़ खोला
कि "अब जज्बा-ओ-शौक़ की वहशतों के ज़माने गए"
फिर वो आहिस्ता-आहिस्ता चारों तरफ़ देखता
मुझ से कहने लगा
"अब बिसात-ए-मुहब्बत लपेटो
जहां से भी मिल जाएं दौलत - समटो
ग़र्ज कुछ तो तहज़ीब सीखो"
10.
वो कोई और न था चंद ख़ुश्क पत्ते थे
वो कोई और न था चंद ख़ुश्क पत्ते थे,
शजर से टूट के जो फ़स्ल-ए-गुल पे रोए थे
अभी अभी तुम्हें सोचा तो कुछ न याद आया,
अभी अभी तो हम एक दूसरे से बिछड़े थे
तुम्हारे बाद चमन पर जब इक नज़र डाली,
कली कली में ख़िज़ां के चिराग़ जलते थे
तमाम उम्र वफ़ा के गुनाहगार रहे,
ये और बात कि हम आदमी तो अच्छे थे
शब-ए-ख़ामोश को तन्हाई ने ज़बाँ दे दी,
पहाड़ गूँजते थे दश्त सन-सनाते थे
वो एक बार मरे जिनको था हयात से प्यार,
जो जि़न्दगी से गुरेज़ाँ थे रोज़ मरते थे
नए ख़याल अब आते है ढल के ज़ेहन में,
हमारे दिल में कभी खेत लह-लहाते थे
ये इरतीक़ा का चलन है कि हर ज़माने में,
पुराने लोग नए आदमी से डरते थे
'नदीम' जो भी मुलाक़ात थी अधूरी थी,
कि एक चेहरे के पीछे हज़ार चेहरे थे
11.
साँस लेना भी सज़ा लगता है
साँस लेना भी सज़ा लगता है
अब तो मरना भी रवा लगता है
कोहे-ग़म पर से जो देखूँ,तो मुझे
दश्त, आगोशे-फ़ना लगता है
सरे-बाज़ार है यारों की तलाश
जो गुज़रता है ख़फ़ा लगता है
मौसमे-गुल में सरे-शाखे़-गुलाब
शोला भड़के तो वजा लगता है
मुस्कराता है जो उस आलम में
ब-ख़ुदा मुझ को ख़ुदा लगता है
इतना मानूस हूँ सन्नाटे से
कोई बोले तो बुरा लगता है
उनसे मिलकर भी न काफूर हुआ
दर्द ये सबसे जुदा लगता है
इस क़दर तुंद है रफ़्तारे-हयात
वक़्त भी रिश्ता बपा लगता है
मायने: रवा=ठीक; कोहे-ग़म=ग़म के पहाड़; दश्त=जंगल; आगोशे-फ़ना=मौत का आगोश; मौसमे-गुल=बहार का मौसम;
सरे-शाख़े-गुलाब= गुलाब की डाली पर; ब-ख़ुदा= ख़ुदा के लिए; काफूर=गायब होना; तुंद=प्रचण्ड;
12.
हैरतों के सिलसिले सोज़-ए-निहाँ तक आ गए
हैरतों के सिलसिले सोज़-ए-निहाँ तक आ गए
हम तो दिल तक चाहते थे तुम तो जां तक आ गए
जुल्फ में खुशबू न थी या रँग आरिज़ में न था
आप किसकी जुस्तजू में गुलसिताँ तक आ गए
ख़ुद तुम्हें चाक-ए-गिरेबां का शऊर आ जाएगा
तुम वहाँ तक आ तो जाओ, हम जहाँ तक आ गए
उनकी पलकों पे सितारे अपने होंठों पे हँसी
किस्सा-ए-गम कहते कहते हम यहाँ तक आ गए
13.
दिल में हम एक ही जज्बे को समोएं कैसे
दिल में हम एक ही जज्बे को समोएं कैसे,
अब तुझे पा के यह उलझन है के खोये कैसे,
ज़हन छलनी जो किया है, तो यह मजबूरी है,
जितने कांटे हैं, वोह तलवों में पिरोयें कैसे,
हम ने माना के बोहत देर है हश्र आने तक,
चार जानिब तेरी आहट हो तो सोयें कैसे,
कितनी हसरत थी, तुझे पास बिठा कर रोते,
अब यह-यह मुश्किल है, तेरे सामने रोये कैसे
14.
इक सहमी सहमी सी आहट है
इक सहमी सहमी सी आहट है, इक महका महका साया है
एहसास की इस तन्हाई में यह रात गए कौन आया है
ए शाम आलम कुछ तू ही बता, यह ढंग तुझे क्यों भाया है
वोह मेरी खोज में निकला था और तुझ को ढूँढ के आया है
मैं फूल समझ के चुन लूंगा इस भीगे से अंगारों को
आँखों की इबादत का मैं ने बस एक ये ही फल पाया है
कुछ रोज़ से बरपा चार तरफ हैं शादी-ओ-ग़म के हंगामे
सुनते हैं चमन को माली ने फूलों का कफ़न पहनाया है
एक लम्हे को ठहर मैं तुझे पत्थर ला दूँ
मैं तेरे सामने अम्बार लगा दूँ लेकिन
कौन से रंग का पत्थर तेरे काम आएगा
सुर्ख़ पत्थर जिसे दिल कहती है बेदिल दुनिया
या वो पत्थराई हुई आँख का नीला पत्थर
जिस में सदियों के तहय्युर के पड़े हों डोरे
क्या तुझे रूह के पत्थर की जरूरत होगी
जिस पे हक़ बात भी पत्थर की तरह गिरती है
इक वो पत्थर है जिसे कहते हैं तहज़ीब-ए-सफ़ेद
उस के मर-मर में सियाह ख़ून झलक जाता है
इक इन्साफ़ का पत्थर भी होता है मगर
हाथ में तेशा-ए-ज़र हो तो वो हाथ आता है
जितने मयार हैं इस दौर के सब पत्थर हैं
शेर भी रक्स भी तस्वीर-ओ-गिना भी पत्थर
मेरे इलहाम तेरा ज़हन-ए-रसा भी पत्थर
इस ज़माने में हर फ़न का निशां पत्थर है
हाथ पत्थर हैं तेरे मेरी ज़ुबां पत्थर है
रेत से बुत न बना ऐ मेरे अच्छे फ़नकार
5.
किस को क़ातिल मैं कहूं किस को मसीहा समझूं
किस को क़ातिल मैं कहूं किस को मसीहा समझूं
सब यहां दोस्त ही बैठे हैं किसे क्या समझूं
वो भी क्या दिन थे की हर वहम यकीं होता था
अब हक़ीक़त नज़र आए तो उसे क्या समझूं
दिल जो टूटा तो कई हाथ दुआ को उठे
ऐसे माहौल में अब किस को पराया समझूं
ज़ुल्म ये है कि है यक्ता तेरी बेगानारवी
लुत्फ़ ये है कि मैं अब तक तुझे अपना समझूं
6.
तुझे खोकर भी तुझे पाऊं जहाँ तक देखूँ
तुझे खोकर भी तुझे पाऊं जहाँ तक देखूँ
हुस्न-ए-यज़्दां से तुझे हुस्न-ए-बुतां तक देखूं
तूने यूं देखा है जैसे कभी देखा ही न था
मैं तो दिल में तेरे क़दमों के निशां तक देखूँ
सिर्फ़ इस शौक़ में पूछी हैं हज़ारों बातें
मै तेरा हुस्न तेरे हुस्न-ए-बयां तक देखूँ
वक़्त ने ज़ेहन में धुंधला दिये तेरे खद्द-ओ-खाल
यूं तो मैं तूटते तारों का धुआं तक देखूँ
दिल गया था तो ये आँखें भी कोई ले जाता
मैं फ़क़त एक ही तस्वीर कहाँ तक देखूँ
एक हक़ीक़त सही फ़िरदौस में हूरों का वजूद
हुस्न-ए-इन्सां से निपट लूं तो वहाँ तक देखूँ
शब्दार्थ: हुस्न-ए-यज़्दां = भगवान की सुन्दरता, हुस्न-ए-बुतां=बुत/मूर्ति की सुन्दरता, खद्द-ओ-खाल=यादें / सूरत, फ़क़त= सिर्फ़
7.
अब तक तो नूर-ओ-निक़हत-ओ-रंग-ओ-सदा कहूँ
अब तक तो नूर-ओ-निक़हत-ओ-रंग-ओ-सदा कहूँ,
मैं तुझको छू सकूँ तो ख़ुदा जाने क्या कहूँ
लफ़्ज़ों से उन को प्यार है मफ़हूम् से मुझे,
वो गुल कहें जिसे मैं तेरा नक्श-ए-पा कहूँ
अब जुस्तजू है तेरी जफ़ा के जवाज़ की,
जी चाहता है तुझ को वफ़ा आशना कहूँ
सिर्फ़ इस के लिये कि इश्क़ इसी का ज़हूर है,
मैं तेरे हुस्न को भी सबूत-ए-वफ़ा कहूँ
तू चल दिया तो कितने हक़ाइक़ बदल गये,
नज़्म-ए-सहर को मरक़द-ए-शब का दिया कहूँ
क्या जब्र है कि बुत को भी कहना पड़े ख़ुदा,
वो है ख़ुदा तो मेरे ख़ुदा तुझको क्या कहूँ
जब मेरे मुँह में मेरी ज़ुबाँ है तो क्यूँ न मैं
जो कुछ कहूँ यक़ीं से कहूँ बर्मला कहूँ
क्या जाने किस सफ़र पे रवाँ हूँ अज़ल से मैं,
हर इंतिहा को एक नयी इब्तिदा कहूँ
हो क्यूँ न मुझ को अपने मज़ाक़-ए-सुख़न पे नाज़,
ग़ालिब को कायनात-ए-सुख़न का ख़ुदा कहूँ
8.
कौन कहता है कि मौत आयी तो मर जाऊँगा
कौन कहता है कि मौत आयी तो मर जाऊँगा
मैं तो दरिया हूं, समन्दर में उतर जाऊँगा
तेरा दर छोड़ के मैं और किधर जाऊँगा
घर में घिर जाऊँगा, सहरा में बिखर जाऊँगा
तेरे पहलू से जो उठूँगा तो मुश्किल ये है
सिर्फ़ इक शख्स को पाऊंगा, जिधर जाऊँगा
अब तेरे शहर में आऊँगा मुसाफ़िर की तरह
साया-ए-अब्र की मानिंद गुज़र जाऊँगा
तेरा पैमान-ए-वफ़ा राह की दीवार बना
वरना सोचा था कि जब चाहूँगा, मर जाऊँगा
चारासाज़ों से अलग है मेरा मेयार कि मैं
ज़ख्म खाऊँगा तो कुछ और संवर जाऊँगा
अब तो खुर्शीद को डूबे हुए सदियां गुज़रीं
अब उसे ढ़ूंढने मैं ता-बा-सहर जाऊँगा
ज़िन्दगी शमा की मानिंद जलाता हूं ‘नदीम’
बुझ तो जाऊँगा मगर, सुबह तो कर जाऊँगा
9.
मुझे कल मेरा एक साथी मिला
मुझे कल मेरा एक साथी मिला
जिस ने ये राज़ खोला
कि "अब जज्बा-ओ-शौक़ की वहशतों के ज़माने गए"
फिर वो आहिस्ता-आहिस्ता चारों तरफ़ देखता
मुझ से कहने लगा
"अब बिसात-ए-मुहब्बत लपेटो
जहां से भी मिल जाएं दौलत - समटो
ग़र्ज कुछ तो तहज़ीब सीखो"
10.
वो कोई और न था चंद ख़ुश्क पत्ते थे
वो कोई और न था चंद ख़ुश्क पत्ते थे,
शजर से टूट के जो फ़स्ल-ए-गुल पे रोए थे
अभी अभी तुम्हें सोचा तो कुछ न याद आया,
अभी अभी तो हम एक दूसरे से बिछड़े थे
तुम्हारे बाद चमन पर जब इक नज़र डाली,
कली कली में ख़िज़ां के चिराग़ जलते थे
तमाम उम्र वफ़ा के गुनाहगार रहे,
ये और बात कि हम आदमी तो अच्छे थे
शब-ए-ख़ामोश को तन्हाई ने ज़बाँ दे दी,
पहाड़ गूँजते थे दश्त सन-सनाते थे
वो एक बार मरे जिनको था हयात से प्यार,
जो जि़न्दगी से गुरेज़ाँ थे रोज़ मरते थे
नए ख़याल अब आते है ढल के ज़ेहन में,
हमारे दिल में कभी खेत लह-लहाते थे
ये इरतीक़ा का चलन है कि हर ज़माने में,
पुराने लोग नए आदमी से डरते थे
'नदीम' जो भी मुलाक़ात थी अधूरी थी,
कि एक चेहरे के पीछे हज़ार चेहरे थे
11.
साँस लेना भी सज़ा लगता है
साँस लेना भी सज़ा लगता है
अब तो मरना भी रवा लगता है
कोहे-ग़म पर से जो देखूँ,तो मुझे
दश्त, आगोशे-फ़ना लगता है
सरे-बाज़ार है यारों की तलाश
जो गुज़रता है ख़फ़ा लगता है
मौसमे-गुल में सरे-शाखे़-गुलाब
शोला भड़के तो वजा लगता है
मुस्कराता है जो उस आलम में
ब-ख़ुदा मुझ को ख़ुदा लगता है
इतना मानूस हूँ सन्नाटे से
कोई बोले तो बुरा लगता है
उनसे मिलकर भी न काफूर हुआ
दर्द ये सबसे जुदा लगता है
इस क़दर तुंद है रफ़्तारे-हयात
वक़्त भी रिश्ता बपा लगता है
मायने: रवा=ठीक; कोहे-ग़म=ग़म के पहाड़; दश्त=जंगल; आगोशे-फ़ना=मौत का आगोश; मौसमे-गुल=बहार का मौसम;
सरे-शाख़े-गुलाब= गुलाब की डाली पर; ब-ख़ुदा= ख़ुदा के लिए; काफूर=गायब होना; तुंद=प्रचण्ड;
12.
हैरतों के सिलसिले सोज़-ए-निहाँ तक आ गए
हैरतों के सिलसिले सोज़-ए-निहाँ तक आ गए
हम तो दिल तक चाहते थे तुम तो जां तक आ गए
जुल्फ में खुशबू न थी या रँग आरिज़ में न था
आप किसकी जुस्तजू में गुलसिताँ तक आ गए
ख़ुद तुम्हें चाक-ए-गिरेबां का शऊर आ जाएगा
तुम वहाँ तक आ तो जाओ, हम जहाँ तक आ गए
उनकी पलकों पे सितारे अपने होंठों पे हँसी
किस्सा-ए-गम कहते कहते हम यहाँ तक आ गए
13.
दिल में हम एक ही जज्बे को समोएं कैसे
दिल में हम एक ही जज्बे को समोएं कैसे,
अब तुझे पा के यह उलझन है के खोये कैसे,
ज़हन छलनी जो किया है, तो यह मजबूरी है,
जितने कांटे हैं, वोह तलवों में पिरोयें कैसे,
हम ने माना के बोहत देर है हश्र आने तक,
चार जानिब तेरी आहट हो तो सोयें कैसे,
कितनी हसरत थी, तुझे पास बिठा कर रोते,
अब यह-यह मुश्किल है, तेरे सामने रोये कैसे
14.
इक सहमी सहमी सी आहट है
इक सहमी सहमी सी आहट है, इक महका महका साया है
एहसास की इस तन्हाई में यह रात गए कौन आया है
ए शाम आलम कुछ तू ही बता, यह ढंग तुझे क्यों भाया है
वोह मेरी खोज में निकला था और तुझ को ढूँढ के आया है
मैं फूल समझ के चुन लूंगा इस भीगे से अंगारों को
आँखों की इबादत का मैं ने बस एक ये ही फल पाया है
कुछ रोज़ से बरपा चार तरफ हैं शादी-ओ-ग़म के हंगामे
सुनते हैं चमन को माली ने फूलों का कफ़न पहनाया है
शानदार
ReplyDelete'kya bhala mujhko parakhne ka' is credited to Muzaffar Warsi on Rekhta.org...
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