Tuesday, 19 June 2012

अहमद कमाल 'परवाज़ी' , गरीबे-शहर का सर है के शहरयार का है

अहमद कमाल 'परवाज़ी'
गरीबे-शहर का सर है के शहरयार का है
ये हमसे पूछ के गम कौन-सी कतार का है 

किसी की जान का, न मसला शिकार का है
यहाँ मुकाबला पैदल से शहरयार का है

ऐ आबो-तबे-सितम, मश्क क्यूँ नहीं करता
हमें तो शौक भी सेहरा-ए-बेहिसार का है

यहाँ का मसला मिट्टी की आबरू का नहीं
यहाँ सवाल जमीनों पे इफ्तिखार का है

वो जिसके दर से कभी जिंदगी नहीं देखी
ये आधा चाँद उसी शहरे-यादगार का है

ये ऐसा ताज है जो सर पे खुद पहुचता है
इसे जमीन पे रख दो ये खाकसार का है

मायने:
शहरयार=बादशाह , मसला=समस्या , ऐ आबो-तबे-सितम=ज़ुल्म करनेवाला,  मश्क=अभ्यास,  सेहरा-ए-बेहिसार=जिसकी कोई हद नहीं,  आबरू=मान,  इख्तियार=अधिकार
परिचय=11 मार्च 1944 को उज्जैन में जन्मे कमाल परवाजी की शायरी में नया अंदाज़ और जिंदगी का अनूठा रंग है. उन्हें मुशायरों में दाद भी खूब मिलती है.

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